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Saturday, November 28, 2009
अन्धेरे हंसते थे खिलखिलाते थे पर
मेरा
और अन्धेरे का
रिश्ता बहुत पुराना है
शायद तब का
जब से मैंने
खुद को पहचाना है
तब मैं अन्धेरे से डरता था
और
उसे देखते ही
मुंह ढ़क कर
सो जाता था
फिर अन्धेरा
मुझे
रास आने लगा था
क्योंकि वह
मुझे तुम्हारे
पास लाने लगा था
तब मैं अन्धेरा
खाता था
अन्धेरा पीता था
तब मैं अन्धेरे में
मरता था
अन्धेरे में जीता था
अन्धेरों में
छुप-छुप के
दिल के जख्म सीता था
अन्धेरा
तब पराया नहीं
मेरा सगा था
उस वक्त मैं
बरसों तक
अन्धेरे में जगा था
तब मेरे सपने
अन्धेरे की उम्र के
बराबर होते थे
तब मैं और तुम
अन्धेरों में हंसते थे
और अन्धेरों में रोते थे
फिर एक दिन अन्धेरा
सचमुच अन्धेरा हो गया
मेरे सपनों को
निगलने वाला सवेरा हो गया
अब मैं भटकता था
अन्धेरों से जूझता था
अन्धेरों से
रोशनी की बस्ती का
रास्ता बूझता था
अन्धेरे हंसते थे
खिलखिलाते थे
पर रास्ता नहीं बतलाते थे
मैं ठोंकरें खाता
अपनी समझ पर पछताता
सम्बन्धों के
जंगल में
चक्र बनाता घूम रहा हूं
मुझे अभी होश में आना है
अपनावजूद अन्धेरों से चुराना है
अन्धेरों से मेरा
रिश्ता बहुत पुराना है
शायद तब का
जब से मैंने खुद को पहचाना है।
हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु
http://gazalkbahane.blogspot.com/
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अन्धेरों से मेरा
ReplyDeleteरिश्ता बहुत पुराना है
बेहतरीन
सुन्दर कविता बधाइ
ReplyDeleteबहुत भावपूर्ण..बेहतरीन!!
ReplyDeleteअति सुंदर मार्मिक, संवेदनशील, संदेशों की किश्ती, भाव विभोर करने वाली प्रस्तुति. आभार.
ReplyDeleteबहुत सुंदर भाव और अभिव्यक्ति के साथ आपने शानदार रचना लिखा है!
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