रिश्तों का
बासी होना
बहुत अखरता है
मन
बार-बार टूटता है
बिखरता है
पर उसे
बचने का रास्ता
नहीं सूझता है
इसलिए बन्ध होकर
भी
रिश्तों से जूझता है
बार-बार
पुराने घर का
रास्ता पूछता है
याद की गलियों
में भटकता
जब वहां पहुंचता है
जहां कभी घर था
तो ठिठक जाता है
क्योंकि वहां भी
किसी अजनबी को
काबिज पाता है
लौटकर
समय के चौराहे पर आ जाता है।
30/8/1992
2.am00 रात्रि
आज यह गज़ल भी
रिश्तों की बंद किताबों को कभी कभी नेह की धूप दिखा दें ...बासी नहीं रहेंगे ...!!
ReplyDeleteओह!! बेहद करीब...भावपूर्ण!!
ReplyDeleteरहिमन धागा प्रेम का ---
ReplyDeleteपुराने रिश्ते फटे हुए दूध की तरह होते है। कितनी कोशिश कर लें , पहले जैसा हो ही नही सकता।
रचना वहुत सुंदर बन पड़ी है, श्याम साहब।