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Friday, July 31, 2009
कानों का रिश्ता-kavita
बहुत
दिन हुए
मैं अपने कान
तुम्हारे पास रख आया था,
वे कान
तुम्हारे दिल की धड़कन
के साथ
मेरा नाम
सुनने के आदी हो गए थे,
धड़कर
के साथ
मेरा नाम सुन सुनकर
मुझे पैगाम भेजते
और
मैं इसलिए
तुमसे
दूर रहकर भी
मर नहीं पाया था
इधर कुछ दिनों से
मेरे कानों ने
पैगाम भेजने बंद कर दिए थे,
मुझे अपने
कानों से ज्यादा
तुम्हारी
धड़कन पर भरोसा था,
इसलिए
मैं जिन्दा रहा।
एक दिन,
तुम्हारे शहर से
मेरा
एक दोस्त
वापिस लौटा
वह
शहर में
काम ढूंढने गया था
पर
आजकल शहर में
काम नहीं बंटता,
वहां के
सपने झूठे हैं
काम तो ठेकेदारों के पास है
और
वह उन्हें बन्धुओ मजदूरों
से करवाते हैं
मेरा
दोस्त आजाद तबियत का
शख्स था,
वह
बन्धुआ मजदूर नहीं बन सका
उसने
कूड़ा बीनना शुरू कर दिया
एक दिन
उसने
तुम्हारे घर के
बाहर रखे कूड़ेदान में
हाथ डाला
तो
उसके हाथ लगे
वह
उन्हें पहचानता था
उसने भी
तुम्हारी तरह
इन कानों से
बहुत बातें की थी
और जब मैं
कान तुम्हें दे आया था,
तो वह मुझसे बहुत
नाराज
हुआ था
वह उसी दिन
गांव वापिस आ गया
उसने
कान मुझे
लौटा दिए
मैंने
कानों से लाख पूछा
पर
उन्होंने कोई जबाव नहीं दिया
मैं कानों को
डाक्टर के पास ले गया
डाक्टर ने
कई तरह से उलट-पुलट कर
आले लगा कर
उन्हें देखा
पर उसे
कुछ समझ नहीं आया
मैं
बहुत घबरा गया था।
कानों से ज्यादा
मुझे तुम्हारी फिक्र थी
तुम्हारी धड़कन
जो इन
कानों के बिना
धड़कना
बन्द करने की धमकी देती थी
उस धड़कन
की फिक्र थी
मैं गांव के ओझा के
पास गया
उसने मंत्र फूंका
कान
बोलने लगे
तुम्हारी
धड़कन मुझे
साफ सुन रही थी
वही की वही थी
पर
इस धड़कन में तो
बहुत से नाम थे,
और
उन नामों में मेरा नाम
नहीं था
अब
कान मेंरे लिए
बेकार थे
मैं उन्हें
ओझा के पास छोड़ आया
मेरा
जीवन भी मेरे लिए बेकार था
इसलिए
मैं
मर गया
मेरी रूह अब भी
ओझा के
घर के
चक्कर काटती है
और
कानों से
तुम्हारी धड़कन और मेरा नाम
सुनना
चाहती है
मैं क्या करूं।
11 pm रात्रि
Wednesday, July 29, 2009
हक ओ हकूक की बात -kavita by shyam skha shyam
मैं
जब भी
हक ओ हकूक
की बात करता हूं
मैं
जब भी
इन्सां के वजूद की
बात करता हूं
तो
लोग
लाठियां लेकर
मारने दौड़े चले आते हैं
चिल्लाते हैं
कि
इस पर
मसीहा उतर आया है
फिर
किसी इन्सान पर
बुद्ध, ईसा या माक्र्स
बनने का
भूत समाया है
मानो
ये सब
लक्कड़बग्घे थे
जो
बच्चों को
उठा ले जाते थे
पहले जब ऐसी बातों
पर
सर फुटौवल होता था
तो दोस्त
समझाते थे
कि
पगले
ऐसी बातें मत किया
और को जीने दे
और खुद भी जिया कर
पर मैं
उनकी बातें पचा नहीं पाता था
अब जब भी
हको हकूक
या इन्सा के वजूद की
बात पर
पिट-पिटा कर
घर लौटता हूं
तो
पत्नी आंचल से
मेरा
लहू पौंछती है
घी
हल्दी से
शरीर की चोट सेकती है
कातर
निरीह
आंखों से मेरे दिल में
झांकती है,
उसकी इन
नजरों से
मैं कमजोर पड़ जाता हूं
मेरी
रूह आंन्धी में
दीए की मानिन्द कांपती है
मैं सोचता हूं
कि अब तक
जो ख्वाब बुने थे
इन्सानियत के
सारे के सारे तोड़ दूं
पर
तभी सामने आ खड़ी होती है
बसु
माने
छोटी सी
प्यारी सी
बेटी
मेरी बेटी बसुदा
साफ
पाक आंखों से झांकती
मानो मेरी
कमजोरी को भांपती
जैसे
पूछती हो
पापा फिर कौन लड़ेगा?
उन लोगों ने
जिन्होंने खरीद लिया है
दाखिले
इंजिनयरिंग
और मेडिकल कालेजों के
जिन्होंने
मिलकर बांट ली है
सारी
नौकरियां
जाति धर्म
और भाई भतीजावाद
का नारा लगाकर
विश्वमुद्राकोष और पूंजीवादियों के हाथों
छीन रहे हैं
दस्तकारों के जीने का हक
मैं लड़खड़ाता सा
पत्नी के
कान्धे का सहारा लेकर
खड़ा होता हूं
और
अपनी कमजोरी की लाश
पर
खड़ा होकर चिल्लाता हूं
इंकलाब
जिन्दाबाद।
और
एक बार फिर
तैयार हो जाता हूं
ह्को-हकूक की
लड़ाई लड़ने के लिये
Saturday, July 25, 2009
राह मिल्यो वो छैल छबीलो
जब तैं प्रीत श्याम सौं कीनी
तब तैं मीरां भई बांवरी,प्रेम रंग रस भीनी
तन इकतारा,मन मृदंग पै,ध्यान ताल धर दीनी
अघ औगुण सब भये पराये भांग श्याम की पीनी
राह मिल्यो वो छैल-छ्बीलो,पकड़ कलाई लीनी
मोंसो कहत री मस्त गुजरिया तू तो कला प्रवीनी
लगन लगी नन्दलाल तौं सांची हम कह दीनी
जनम-जनम की पाप चुनरिया,नाम सुमर धोय लीनी
सिमरत श्याम नाम थी सोई,जगी तैं नई नवीनी
जब तैं प्रीत श्याम तैं कीनी
Monday, July 20, 2009
सिरफिरे और सलीब-कविता
सिरफिरों ने
जब भी चुना है,
सलीब को चुना है,
किसी सिरफिरे ने
हथिया ली गद्दी,
आपने सुना, गलत सुना है।
गद्दी की पहचान,
उसे कहाँ,
जिसका
सिर फिरा हो,
गद्दी को वो क्या जाने,
जो रोटी-रोजी के मसले से जुड़ा हो।
गद्दी भी,
पसंद करती है उन्हें,
जिनके कूल्हे नरम और जेब गर्म हो,
गद्दी को कब भाए हैं वो,
जो केवल हाड़ हों, चर्म हों।
गद्दी को,
कब पसंद आई हैं
झुकी हुई बोझल निगाहें,
गद्दी को चाहिएं,
वो नजरें जो बेशर्म हों।
यह
आज की बात नहीं,
ये तो सदियों का सिलसिला है,
सोने की छड़ से
क्या
गरीब का चूल्हा जला है।
ये सवाल
सतही नहीं,
मेरे हुजूर दिल का है,
खनखनाते
बलूरी ग्लासों का नहीं,
बनिए के बेहिसाब
बढ़ते बिल का है।
हमेशा
घाटे का पाया है,
गरीब का बजट,
मैंने तुमने चाहे जिसने गुना है,
सिरफिरों ने
जब भी चुना है,
सलीब को चुनाहै
[टिनामिन चौक चीन में विद्यार्थी/टैंक पर]
Friday, July 17, 2009
देह तो मात्र जवान गठीली, उत्तेजक माशपेशियाँ तथा गोलाईयाँ हैं
जैसे-तैसे कट रही जिन्दगी।
पहले हम
सरदारों, नवाबों,
राजाओं के गुलाम थे
फिर संतरियों
तथा मंत्रियों के
गुलाम बने
अब हम
पदार्थोन्मुखी हैं
यानी
बाजार के
विज्ञापन के गुलाम हैं
गुलाम हैं
साबुन, तेल, टी.वी.
स्टीरियों, कार,
कम्प्यूटर बेचती
नंगी मादा देह के
इस मादा देह का
अवगुठन नहीं,
मात्र नाम बदलते हैं।
देह तो मात्र
जवान गठीली,
उत्तेजक माशपेशियाँ तथा गोलाईयाँ हैं
हाँ इनके
नाम बदलते रहते हैं
जैसे
ऐश्वर्य, सुष्मिता, लारा दत्ता,
करिश्मा या करीना कपूर
अक्षय, अजेय यौवन के ख्वाब बेचते
पच्चीस साल के बुड्ढे, या साठ साल के जवान के
या फिर अन्दर का मामला है
का गोविंदा
या के.बी.सी. को लॉक करने वाला
बुढ़ाता निरीह अमिताभ
जिसपर तरस खाकर
हम खरीदते हैं हिमानी तेल
हालाँकि मालिश के लिए
न हमारे पास वक्त है
न ही सिर
कबन्धों के पास कभी सिर हुआ है?
जो हमारे पास होता।
उसके धमकाने पर
हम पहुँच जाते है अस्पताल
अपने शिशुओं को
पोलियों ड्राप्स दिलवाने
बस इसी तरह
गुलामी में कटे हैं
हमारे पूर्व जन्म
और
कट रही है यह उम्र भी
जैसे
तैसे
Saturday, July 11, 2009
नपुंसक- दर्द
एक दिन
मेरे
सारे दर्द
इकटठे होकर
मेरे पास आए
मैं घबरा गया
जैसे कारखाने का मालिक
मजदूर यूनियन के नुमाइंदे
को देखकर घबरा जाता है
दु:खों ने मेरे दिल के
दरवाजे पर
दस्तक दी
मैं
और घबरा गया
क्योंकि कुछ दिनों से
मेरे दिल में
एक पराई खुशी
रहने लगी थी
अगर मेरे दर्दों ने
उसे देख लिया
तो मेरा दिल
और खुशी
दोनों बदनाम हो जाएंगे
क्योंकि
इन दोनों का
रिश्ता अभी नाजायज था
खुशी डर से
कांपने लगी
जैसे
कोई क्वारी लड़की
किसी अनजाने लड़के के साथ
कमरे में
अकेली पाए जाने पर
और किसी जान पहचान वाले
के आ जाने पर कांपती है
उसने कुनमुनाती आवाज
में मुझसे पूछा
अब क्या होगा?
मैं अब तक
कुछ सम्भल चुका था
बोला कुछ नहीं होगा
और हुआ भी तो
क्या होगा-होगा
बस एक और दर्द
दिल के दरवाजे पर
लगातार दस्तकें पड़ रही थीं
मैं और खुशी सहमे बैठे थे
बाहर दर्द हमें घेरे खड़े थे
और भीतर
एक और दर्द पैदा हो चुका था
मैंने दरवाजा थोड़ा सा खोला
और नए जन्में
दर्द को बाहर निकाल दिया
बाहर खड़े दर्दों ने
उसे लपक लिया
और जश्न मनाने लगे
जैसे हिजड़े
एक और नपंुसक के
पैदा होने पर जश्न मना रहे हों।
खुशी
अपने घुटनों में मुंह दिए
सुबक रही थी
और मैं
किंकृत्व्य विमूढ सा
एक कोने में खड़ा
अपनी नपुंसकता
पर खिसियानी हंसी -हंसता
और थोथे ज्ञान से
अपने को बहका रहा था
कि होनी भला किसके वश में है ?
Monday, July 6, 2009
Friday, July 3, 2009
भूख ने रोजे रख लिए-कविता-श्यामसखा
भूख ने रोजे रख लिए
वक्त तब
सब पर
मेहरबान था
भूख और रोटी
का इश्क चढ़ा परवान था
भूख को
अपनी मेहनत
और रोटी को
अपनी महक का सरूर था
भूख और रोटी को
एक-दूजे के
प्यार का गरूर था
भूख रोज
अल सुबह उठता
रोटी को चूमता
कुदाल लिए झूमता
खेत चला जाता
दिन भर पसीना बहाता
धरती परती करता
खेत ही नहीं खलिहान भी भरता
दिया जले
सांझ ढले
घर लौटता
रोटी बनी ठीनी-सी
महकी उदराई सी
सजी सजाई सी
उसका इन्तजार करती
भूख उसे बाहों में थाम लेती
रोटी
तब बिकती नहीं थी
न कच्ची रहती थी
जली सी सिकती न थी
फिर जाने
कहां से धर्म आया
राम जाने उसने
भूख को क्या सिखाया
भूख ने रोजे रख लिए
बोला
बस तौबा
बहुत स्वाद चख लिए
अब परलोक सुधारूंगा
जिन्दगी धर्म पर वारूंगा
रोटी ने सुना तो
भागी आई
आंसू बहाए गिड़गिड़ाई
याद दिलाए
कसमें -वायदे
प्रीत की रस्में-कायदे
पर भूख
टस से मस न हुआ
रोटी का
उस पर बस न हुआ
अब रोटी
सिर्फ रोती थी
अपनी आब खोती थी
बूढी औरत की
सफेद लटों सी फफूंद ने
उसे घेर लिया
रोटी ने भी
जमाने से मुंह फेर लिया
वह भुरी
भुरती गई
और खत्म हो गई
भूख को अब भान हुआ
उसके हाथों रोटी का अपमान हुआ
उसने ढूंढा रोटी
यहां थी वहां थी
पर रोटी अब कहां थी?
अब भरपेट लोग
रोटी खरीदते हैं खाते हैं
डकार लेते हैं गुनगुनाते हैं
भूख
खाली पेट सोती है
सिर धुनती है,
धर्म को रोती है।
21/10/91 सांय-५.३३
Thursday, July 2, 2009
खत
Wednesday, July 1, 2009
सुनो हवा कुछ कह रही है-kavita
सुनो हवा कुछ कह रही है
हवा कह रही है
रोशनियां गुल कर दो
क्यों ?
क्योंकि इन की
चौंधियाती चमक
बच्चों को रूबरू नहीं होने देती चांद- सितारों से
और अगर
तुम्हें इतना ही घमंड है
अपनी नियोन-लाइटों का
तो उनसे कहो
सूरज से करें मुकाबला
मत करो कोशिश
नन्दन वन में कुकमुत्ते उगाने की
कहीं एक दिन तुम्हारे भीतर
सिर्फ़ कांटे ही रह जाएं
खिड़किया खुली रहने दो
तुम्हारी वातानुकूलित हवा मुझे मुर्दा लगती है
जब कि खुली खिड़कियों
से आती हवा गर्म तो जरूर है
मगर उसमें
गंध है दुधमुहे-बछड़े की
उपले थाप रही मां के आंचल की
माने उसमें
गंध है जीवन की
अपने यांत्रिक जंजाल से
बाहर निकल कर देखो
गलियों में बच्चे अब भी खेलेते हैं नंग-धड़ग
माना वे तुम्हारे स्टेट-ऑफ़ थी आर्ट बच्चों सरीखे नहीं हैं
पर बच्चों पर क्या किसी ब्रांड की मोहर होनी चाहिये
बाहर आकर देखो
सड़क पर चल रहे अधिकांश लोग
अभी भी शरीफ़ हैं
कुदाल उठाए किसान
हथौड़ा थामे मजदूर
बर्तन मांजने जाती बसन्ती
साइकल की घंटी बजाता डाकिया
ये लोग लुटेरे या अपहरण-कर्ता नहीं हैं
अपहरण-कर्ता तो तुम्हारी तरह कारों में आते है
और लुटेरे झंडी लगी बडी कारों में
देखो
सूरज और चांद अभी
किसी साहूकार की तिजौरी में कैद नही हैं
शहर की गलियों से बाहर निकलो
देखो पगडंडियों पर अब भी हवा का राज ह
धूल की खिड़की खुली है
वहां की हवा में अभी ‘लेड’नहीं घुली है
पर वहां
अपनी पोलिशन रहित सर्टिफ़िकेट वाली कार मत ले जाना
क्योंकि तब तो वे जंगली फ़ूल मुर्झा जाएंगे
हर-सिंगार को काला मत करना
पीपल को देखना मस्त बयार में
पागलों की तरह झूमते
तुम भी सब कुछ भूल झूम उठोगे
रोशनियां गुल कर दो
चांद को निहारो
सितारों को गिनो
इन्ही सितारों में तुम्हारा बचपन छुपा है
यहीं -कहीं आंख मिचौनी कर रही है
तुम्हारी जवानी
सुनो हवा कह रही है
तुम्हारी पहली-पहली प्रेम कहानी
१३/३/९५/१बजे रात
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