असहाय
एवम् निरीह
त्रिशंकु सा उल्टा लटका हूं
अंधेरे महा शून्य में
जब कभी
कोई धूमकेतु निकलता है
मेरे समीप से
तो मैं हाथ-पांव मारता हूं
उसे पकड़ने के लिये
पर संभव नहीं होता
यह हरबार की तरह
यह महा शून्य
और घना अंधियारा हो जाता है
साथ-साथ बर्फ़ीला भी
मैं प्रतीक्षा में हूं
तुम्हारी सांसों की गरमाहट महसूसने को
बस तुम्ही निजात दिला सकती है
मुझे इस महाशून्य से
कब आओगी तुम
आज यहां http://gazalkbahane.blogspot.com/ यह गज़ल पढ़ सकते हैं आप
वाह !
ReplyDeleteमैं हाथ-पांव मारता हूं
उसे पकड़ने के लिये
पर संभव नहीं होता
यह हरबार की तरह
यह महा शून्य
और घना अंधियारा हो जाता है
श्यामजी ....वाह !
साँसो की गरमाहट कही और विशाल शून्यता (वांछित) न दे जाये. विलीनीकरण और साहचर्यता शायद शून्यता प्रदान करती है.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना
बहुत सुन्दर रचना!!
ReplyDeleteवाह के अलावा कोई शब्द नही सुझ रहा!
ReplyDeleteआपकी शब्द चयन क्षमता हैरान कर देती है...बेजोड़ भाव और कमाल की रचना...वाह
ReplyDeleteनीरज
आपकी प्रतीक्षा अवश्य सफल होगी । सुंदर भाव भीनी कविता ।
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