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Monday, November 2, 2009

बस तुम्ही निजात दिला सकती है--

मैं
असहाय
एवम्‌ निरीह

त्रिशंकु सा उल्टा लटका हूं
अंधेरे महा शून्य में
जब कभी
कोई धूमकेतु निकलता है
मेरे समीप से
तो मैं हाथ-पांव मारता हूं
उसे पकड़ने के लिये
पर संभव नहीं होता
यह हरबार की तरह
यह महा शून्य
और घना अंधियारा हो जाता है
साथ-साथ बर्फ़ीला भी
मैं प्रतीक्षा में हूं
तुम्हारी सांसों की गरमाहट महसूसने को
बस तुम्ही निजात दिला सकती है
मुझे इस महाशून्य से
कब आओगी तुम


आज यहां http://gazalkbahane.blogspot.com/ यह गज़ल पढ़ सकते हैं आप

पहले देंगे जख्म और फिर--- गज़ल

6 comments:

  1. वाह !
    मैं हाथ-पांव मारता हूं
    उसे पकड़ने के लिये
    पर संभव नहीं होता
    यह हरबार की तरह
    यह महा शून्य
    और घना अंधियारा हो जाता है

    श्यामजी ....वाह !

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  2. साँसो की गरमाहट कही और विशाल शून्यता (वांछित) न दे जाये. विलीनीकरण और साहचर्यता शायद शून्यता प्रदान करती है.
    बहुत सुन्दर रचना

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  3. वाह के अलावा कोई शब्द नही सुझ रहा!

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  4. आपकी शब्द चयन क्षमता हैरान कर देती है...बेजोड़ भाव और कमाल की रचना...वाह
    नीरज

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  5. आपकी प्रतीक्षा अवश्य सफल होगी । सुंदर भाव भीनी कविता ।

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