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Saturday, December 26, 2009

औरत को समझने के लिये-?

1
औरत
रो लेती है
हर छोटे या
बड़े दु:ख पर
और फिर
पांव पसार कर
पीठ मोड़कर सो जाती है

जब कि
पुरुष
रोता नहीं छीजता है,
खीजता है
दांत पीसता है
छत निहारता है
पंखे की पंखुडिय़ां गिनता है
बस जागता रहता है
सारा दिन
सारी रात
बिना बात

औरत को
समझने के लिये
गज-भर का
कलेजा चाहिये
दिल नहीं
दिल की जगह
भी भेज़ा चाहिये


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मै भला कब सुधरने वाला हूँ



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Thursday, December 24, 2009

प्यार के पल गिन


रात
हो
या दिन
बस हर पल-छिन
कहता है
मन
गिन-गिन -गिन
प्यार
के
पल
गिन
-
गिन

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मै भला कब सुधरने वाला हूँ

Saturday, December 12, 2009

रकीबों से उधार


आदत
से मजबूर

मुझे
एक आदत
सी
हो गई है
दुख उठाने की
अपने गम
नहीं होते हैं



तो ले आता हूं
रकीबों से उधार।

2
आदतें
आदतें
पुरानी
हों
कि
नईं
कब
गईं



10ण्4ण्1992
11ण्43 रात्रि

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पुराना शे‘र नई बहर में--श्याम सखा

Thursday, December 10, 2009

इन्तजार ?


रोज
दोपहर तक

नयन बैठे रहते हैं

बाहर

जंगले वाले
दरवाजे पर

डाकिये की
प्रतीक्षा में
उसके
साइकल की घंटी पर
मन
जा बैठता है
लैटर-बाक्स के भीतर

फिर
सड़क पर बैठे
ज्योतिषी के तोते सा

ढ़ूंढ़ता है

चिट्ठियों के ढेर में

तुम्हारी चिट्ठी

जिसकी आस में

अटकी है सांस

जो आई नहीं
अब तक
कब आयेगी ?




हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु
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Sunday, December 6, 2009

्स्त्री-पुरूष और जंग

पुरुष
जंग लड़ता है
जंग जीतता है
जंग हारता है
औरतें
जंग लड़ती नहीं



सिर्फ जंग जीतती हैं।





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Wednesday, December 2, 2009

याद की गलियों में

रिश्तों का बासीपन

रिश्तों का
बासी होना
बहुत अखरता है
मन
बार-बार टूटता है
बिखरता है
पर उसे
बचने का रास्ता
नहीं सूझता है
इसलिए बन्ध होकर
भी
रिश्तों से जूझता है
बार-बार
पुराने घर का
रास्ता पूछता है
याद की गलियों
में भटकता
जब वहां पहुंचता है
जहां कभी घर था
तो ठिठक जाता है
क्योंकि वहां भी
किसी अजनबी को
काबिज पाता है
लौटकर
समय के चौराहे पर आ जाता है।


30/8/1992
2.am00 रात्रि

आज यह गज़ल भी

दिल की बस इतनी खता है

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