इसी कहानी के दो अंश-
१-- [एक अजीब मिठास लिये रसभरियों का, कसैला स्वाद मुझे कभी नहीं भाया था। हाँ उन्हें देखना अलबत्ता मुझे अच्छा लगता था; उन्हें देख मुझे यूँ लगता था जैसे कोई गदराया बदन, कल्फ लगी मलमल की साड़ी से बाहर निकला जा रहा हो। मुझे रसभरी के झीने मुलायम कवच को छूना भी भला लगता था। उसके चिकने बदन पर हाथ फिराना मुझे एक अजीब किस्म का सुख देता था, जिसे शायद फ्रायड महाशय ही शब्द दे पाएँगे।]
२-हे राम ! रसभरी फ्रिज में, मेरा दिल बैठ गया। मैं भागा रसोई की और।
मुझे फ्रिज में रखे फल व मारचरी [शव] ग्रह में रखी लाश में, एक अदभुत साम्य का अहसास होता है। मुझे लगता है कि फ्रिज में जाकर फल-सब्जियां मर जाती हैं। उनमें अपना स्वाद, अपनी खूशबू न रहकर फ्रिज का ठण्डापन हावी हो जाता है। शायद यह मेरे देहात में बीते बचपन के कारण हो। वहां तो बस ताजा फल-सब्जियां खाने का रिवाज होता था। पर इधर कुछ बरसों से, काम की भरमार, जिम्मेदारियों के बोझ तथा पत्नी के अनुशासन के नीचे दबकर, मैं अपने आप को खो बैठा था।
रस-भरी- कहानी
बहुत दिनों बाद इस शहर में रसभरी बिकती देखी। मैं कार चला रहा था, पत्नी व बच्चे भी साथ थे किसी उत्सव में शामिल होने जा रहे थे। रसभरी खरीदने खाने की इच्छा थी परन्तु पत्नी ने साज-सिंगार मे इतनी देर कर दी थी कि अगर मैं गाड़ी रोकता तो और देर हो जाती, इसलिये चाहकर भी गाड़ी नहीं रोक सका।
हालाँकि तथा-कथित अभिजात्य वर्ग में शामिल होकर, मशीनी जिन्दगी जीते-जीते, मैं भी इन सब्जियों-फलों को जो अक्सर गाँव-देहात या कस्बों में मिलती है, का स्वाद लगभग भूल ही चुका था। फिर भी मन में दबी रसभरी दो दिन से मेरे पीछे लगी थी। मैं अस्पताल आते-जाते उसी सड़क से तीन बार गुजर चुका था और हर बार मेरी निगाहें उस रेहड़ी वाले को ढूंढ़ती रही थीं, फल-सब्जी की दुकान पर भी पता किया पर रसभरी नहीं मिलीं।
आज अचानक दोपहर को अस्पताल से एक सीरियस मरीज़ देखने का बुलावा आने पर मैं अस्पताल जा रहा था कि वो रसभरी की रेहड़ी ठेलता हुआ सामने से आता दिखा। मैंने गाड़ी रोकी तब तक वह काफी दूर निकल गया था। आज तो मेरा बचपना मुझ पर हावी था, मैंने उसकी और दौड़ते हुए आवाज दी 'ओ! रसभरी!'
उसके लगभग दौड़ते पाँव थम गये। मैं उसके पास पहुंचा ही था कि उसने तराजू तान दी बोला 'कितनी'?
मैने बिना सोचे कहा 'आधा-किलो।'
उसने तोलकर कागज के लिफाफे में डालकर मुझे पकड़ाते हुए कहा 'बाइस रुपये'। मैंने पचास का नोट दे दिया। वह गल्ले से पैसे निकाल रहा था तो मैने पूछा 'रसभरी और कहीं नहीं मिली शहर में तुम कहां से लाते हो' उसने पैसे वापिस करते हुए कहा 'दिल्ली से' और चलता बना जैसे उसे किसी की परवाह ही न हो। देखा तो वह रेहड़ी धकियाए काफी दूर जा चुका था।
अस्पताल से घर लौटने पर मरीज देखने के चक्कर में रसभरियों को भूल ही गया। रात सोने लगा तो अचानक याद आया तो मुहं से निकला 'अरे! मेरी गाड़ी में रसभरियां थी उनका क्या हुआ? पत्नी ने करवट बदलते हुए कहा 'नौकर ने निकालकर फ्रिज में रख दी होगी'।
हे राम ! रसभरी फ्रिज में, मेरा दिल बैठ गया। मैं भागा रसोई की और।
मुझे फ्रिज में रखे फल व मारचरी [शव] ग्रह में रखी लाश में, एक अदभुत साम्य का अहसास होता है। मुझे लगता है कि फ्रिज में जाकर फल-सब्जियां मर जाती हैं। उनमें अपना स्वाद, अपनी खूशबू न रहकर फ्रिज का ठण्डापन हावी हो जाता है। शायद यह मेरे देहात में बीते बचपन के कारण हो। वहां तो बस ताजा फल-सब्जियां खाने का रिवाज होता था। पर इधर कुछ बरसों से, काम की भरमार, जिम्मेदारियों के बोझ तथा पत्नी के अनुशासन के नीचे दबकर, मैं अपने आप को खो बैठा था।
पर आज रसभरी का फ्रिज में रखा जाना सुनकर मेरा दिल दहल गया था। क्या सचमुच रसभरी की लाश मिलेगी फ्रिज में? वितृष्णा सी होने लगी।
पर मैंने, भुलक्कड़ नौकर को धन्यवाद दिया, जब रसभरी का लिफाफा, रसोई की सिलपर रखा देखा।
लिफाफा उठाकर, वापिस बेडरूम में आ गया और लिफाफे से, निकालकर रसभरी मुँह में रखी। आ हा! क्या रस की फुहार फूटी मेरे मुँह में, अजीब सा मीठा खटास, ना नीम्बू, ना सन्तरा, ना आम, रसभरी का स्वाद, रसभरी खाये
बिना नहीं जाना जा सकता।
पत्नी ने मेरी और करवट लेकर कहा 'अरे! कम से कम, धो तो लेते।' अब उसे कौन समझाए कि ऐसे बाँगरू देहाती फलों को स्नान नहीं करवाया जाता? उनके ऊपर पड़ी धूल की परत का अपना स्वाद है, अपना आनन्द है।
मनुष्य की एक आदत बड़ी अजीब है। किसी को भूलता है तो ऐसे जैसे उसका कोई अस्तित्व ही नहीं था। याद करने पर आता है तो छोटी सी बात, छोटी सी घटना को उम्रभर कलेजे से लगाये-चिपकाए जीए चला जाता है।
रसभरी खाते-खाते मेरी एक पुरानी टीस जो यादों की सन्दूक में कहीं बहुत नीचे छुप-खो गई थी, उभर आई।
बचपन जिस कस्बे में बीता था, वह उस जमाने में फलों के बागों के लिए दूर-दूर तक प्रसिद्ध था। उस दिन से पहले मुझे रसभरी कभी अच्छी नहीं लगी थी जबकि घर-घर क्या कस्बे के अधिकांश लोग, रसभरियों के पीछे पागल थे और अनवर मियां के बाग की मोटी रसभरियां तो ऐसे बिकती थीं, जैसे कर्फ्यू के दिनों में दूध।
एक अजीब मिठास लिये रसभरियों का, कसैला स्वाद मुझे कभी नहीं भाया था। हाँ उन्हें देखना अलबत्ता मुझे अच्छा लगता था; उन्हें देख मुझे यूँ लगता था जैसे कोई गदराया बदन, कल्फ लगी मलमल की साड़ी से बाहर निकला जा रहा हो। मुझे रसभरी के झीने मुलायम कवच को छूना भी भला लगता था। उसके चिकने बदन पर हाथ फिराना मुझे एक अजीब किस्म का सुख देता था, जिसे शायद फ्रायड महाशय ही शब्द दे पाएँगे।
उस दिन चैम्बर वाली धर्मशाला के सामने वह रेहड़ीवाले से रसभरी तुलवा रही थी और साथ-साथ रसभरी छील-छीलकर खाती जा रही थी। उसने कल्फ लगा, कॉटन का सफेद स्कर्ट व सन्तरी रंग की टॉप पहन रखी थी, मुझे उसमें और रसभरी में एक अजीब समता लगी थी ।
वह मेरा पहला प्यार थी। इस बात का यह मतलब कतई नहीं है कि मैने बहुत से प्यार किये हैं। वह यानी 'मेरा पहला प्यार' हमारे घर से थोड़ी दूर पर रहती थी। आपने रेलवे रोड़ पर सचदेवा जनरल स्टोर तो देखा होगा, जिसका गोरा-चिट्टा मालिक, बालों को खिज़ाब से रंगकर, पत्थर की प्रतिमा सा, काउंटर पर बैठा रहता था। उसके चेहरे के स्थितप्रज्ञ भाव केवल किसी खास अमीर ग्राहक के आने पर ही बदलते थे। वरना वह एक आँख से दुकान के नौकरों व दूसरी से सड़क पर अपना अबोल हुक्म चलाता प्रतीत होता था।
उसकी दुकान सबसे साफ-सुथरी व व्यवस्थित दुकान थी, हर चीज इतने करीने रखी सजी होती थी, दुकान के नौकर भी वर्दी पहने होते थे, इन सब बातों के होते आम ग्राहक तो डर के मारे दुकान पर चढ़ते ही नहीं थे।
उसी सचदेवा जनरल स्टोर के सामने एक होटल था, जी हाँ, सारे शहर में यही एक होटल था उन दिनों,बाकी सारे वैष्णो ढाबे थे। इस होटल के बाहर जालीदार छींके में मुर्गी के झक-सफेद अंडे टंगे रहते थे और शीशे के दरवाजे के भीतर हरी गद्दियों वाली कुर्सीयां, लाल रंग के मेजपोशों वाली मेजों के साथ लगी दिखती थी। कुल मिलाकर हमें वह फिल्मों वाला नजारा लगता था। मुझे बहुत बाद मालूम हुआ कि वह होटल नहीं, रेस्तराँ था। पर तब वह शहर का एक मात्र होटल था जहाँ सामिष भोजन मिलता था।
वह इसी होटल के ऊपर रहती थी। मैं तब दसवीं कक्षा में पढ़ता था, नई-नई मसें भीगीं थी। मन में एक अजीब हलचल रहने लगी थी, जिन लड़कियों को मैं पहले घास भी नहीं डालता था अब उन्हें नजर चुराकर देखना मुझे अच्छा लगने लगा था। उन्हीं दिनों मैंने भाटिया वीर पुस्तक भँडार से किराये पर लेकर चन्द्रकान्ता व चंद दीगर जासूसी उपन्यास पढ़ डाले थे।
मुझे वह चंद्रकान्ता लगने लगी थी। उसकी चाल में एक अजीब मादकता थी, मैं उसकी एक झलक पाने के लिये बिना बात बाजार के चक्कर लगाने लगा था, तथा जब वह रसभरी खरीदकर, अपने चौबारे चढ़ जाती थी, तो मैं रेहड़ी से रसभरी लेने पहुँच जाता था। रसभरी अब मुझे सभी फलों से अच्छी लगने लगी थी। पर मुसीबत यह थी कि रसभरी साल में दो तीन महीने आती थी।
वह कौन सी कक्षा में पढ़ती थी? मुझे पता नहीं था, पर उसे रिक्शा में पढ़ने जाते देखना, मेरा रोज का काम हो गया था, हमारे मुहल्ले की इस उम्र की लड़कियों ने या तो पढ़ना छोड़ दिया था या उनका पढ़ना छुड़वा दिया गया था और वे घर-घुस्सू हो गई थीं। पर यह लड़की रिफ्यूजी याने पाकिस्तान से विस्थापित थी। और इन रिफ्यूजियों मे एक खास खुलापन था। वह रिकशा में ऐसे बैठती थी, जैसे कोई रानी रत्न-जड़ित रथ पर या कोई मेम विक्टोरिया में बैठी हो। सचदेवों का बड़ा लड़का सुरेन्द्र, मेरे साथ पढ़ता था, वह शाम को कभी-कभार अपनी दुकान पर बैठ जाता था, मैंने उसे अक्सर सुरेन्द्र से बातें करते देखा था, मैं उसका नाम भी नहीं जानता था, पर शर्म के मारे सुरेन्द्र से भी नहीं पूछ पाया था। वैसे भी सुरेन्द्र शोहदों की टोली में था और मैं किताबचियों की टोली में।
शायद अब उसे भी पता चल गया था कि मैं उसे देखता रहता हूँ। अब वह भी कभी-कभी पलट कर मुझे देखने लगी थी। एक दिन मैं, रेलवे-क्रासिंग बन्द होने के कारण, फाटक के बाजू में पैदल-यात्रियों हेतु बने चरखड़े से, साइकिल निकाल रहा था, कि वह भी दूसरी और से उसमें से निकलने लगी। हमारी नजरें मिलीं, एक पहचान पल-भर के लिये कौंधी। फिर वह, मेरे हाथ पर हाथ रख कर चरखड़े से निकल गई। मैं सुन्न खड़ा रह गया था, उस छुअन के अहसास से। अगर पी़छे आता राहगीर मुझे न धकियाता, तो शायद मैं उम्र-भर वहीं खड़ा रह जाता।
मैं वहाँ से चला तो गुनगुनाने लगा था 'हम उनके दामन को छूकर आये हैं,हमें फूलों से तोलिये साहिब'।
अनेकों बार सूंघा था मैंने अपने उस हाथ को। मैंने तो अपने उस हाथ को चूमना भी चाहा था, पर मैं यह सोचकर नहीं चूम सका कि वह यह जानकर नाराज न हो जाये। आज उन बचकानी बातों को सोचकर हँसी आती है।
हमारी नजरें मिलने का सिलसिला लगभग दो साल चला। वह सामने से आती दिखती तो मैं जान-बूझकर आहिस्ता चलने लगता कि उसे ज्यादा देर तक देख सकूं। वह भी मौका मिलते ही मुड़-मुड़कर मुझे देखती तथा किसी के आ जाने पर अपनी गर्दन को हल्का सा झटका देती जैसे अपनी जुल्फें सँभाल रही हो।
एक बार तो पीछे मुड़कर देखते हुए वह मुस्कराई भी थी। उस वक़्त उसकी साफ-शफ़्फ़ाक बिल्लोरी आँखों मे एक चमक थी, एक पहचान थी, एक राज़ था, एक साझेदारी थी और भी जाने क्या-क्या था, शायद प्यार भी था। मुझपर कई दिन, एक अजीब सा नशा छाया रहा। फिर मुझे मेडिकल ऐन्ट्रेंस टेस्ट देने पटियाला जाना पड़ा। तीन दिन बाद ही लौट पाया था।
ट्रेन रात को पहुँच। स्टेशन से मेरे घर का छोटा रास्ता दूसरा था पर मै उसके घर की तरफ से लौट रहा था । उसके घर में एक कमरे की बत्ती जल रही थी, मैं खड़ा हो गया। मैं वहीं खड़ा उस खिड़की को देखने लगा। बाजार के चौकीदार के टोकने पर ही घर गया था।
उस रात के बाद वह मुझे कभी दिखाई नहीं दी। वह घर भी बन्द रहने लगा। मैं जाने क्यों उदास रहने लगा। वक़्त मेरी उदासी से बेखबर अपनी रफ़्तार से चलता गया।
एक दिन मैंने देखा कि डाकिया उसके घर की सीढीयां चढ़ रहा था। फिर उसने एक खत उनके बरमदे में फेंक दिया और चलता बना। मैं शाम होने पर, सीढियों पर चढ़कर बरामदे में पहुँचा, वहाँ बेंत की दो टूटी कुर्सियां पड़ी थीं। पर खत शायद हवा उड़ा ले गई थी। एक कुर्सी पर एक छोटा सा चिथड़ा सा पड़ा था, उठाकर देखा तो वह एक जनाना रुमाल था। अनजाने में, मैं उसे सूंघ बैठा; मुझे उसमें वही गंध महसूस हुई, जो उसके छूने पर अपने हाथ मे आई थी।
हालांकि वह रुमाल किसी और का भी हो सकता था। पर तब मुझे यकीन था कि वह उसी का है। उस रुमाल पर लाल व हरे रंग का फूल काढ़ा हुआ था। मैंने उसे अपनी किताब ग्रे'ज अनाटमी में रख लिया था। अनाट्मी का कोर्स खत्म होने पर भी मैने वह किताब नहीं बेची, हालांकि कई बार मुझे पैसे की किल्लत भी हुई थी।
बरस पर बरस बीतते गये। यादों के आइने पर वक़्त की धूल की परत चढ़ गई और उसकी याद भी उसी की तरह खो गई थी। आज अगर रसभरी न खरीदता, खाता तो बचपन के मीठे कसैले, अतृप्त, असफल, अधूरे प्रेम की याद कैसे आती।
हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु
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हं ऐसा ही होता है किशोरवय का प्रेम, और ऐसी ही होतीं हैं यादें. बहुत नाज़ुक सी कहानी.
ReplyDeleteकहानी (?) इतनी ही है ... ... . बाक़ी सब बोर करनेवाली बातें हैं... ... . आपकी कहानी न होती, तो एक अवतरण के बाद पढ़ना छोड़ देता ... ... . कहानी कम संस्मरण ज़्यादा है -
ReplyDeleteवह रेहड़ीवाले से रसभरी तुलवा रही थी और साथ-साथ रसभरी छील-छीलकर खाती जा रही थी। उसने कल्फ लगा, कॉटन का सफेद स्कर्ट व सन्तरी रंग की टॉप पहन रखी थी, मुझे उसमें और रसभरी में एक अजीब समता लगी थी ।
वह मेरा पहला प्यार थी। सचदेवा जनरल स्टोर के सामने एक होटल के ऊपर रहती थी वह। मैं तब दसवीं कक्षा में पढ़ता था, नई-नई मसें भीगीं थी। मन में एक अजीब हलचल रहने लगी थी, जिन लड़कियों को मैं पहले घास भी नहीं डालता था अब उन्हें नजर चुराकर देखना मुझे अच्छा लगने लगा था।
मुझे वह चंद्रकान्ता लगने लगी थी। उसकी चाल में एक अजीब मादकता थी, मैं उसकी एक झलक पाने के लिये बिना बात बाजार के चक्कर लगाने लगा था, तथा जब वह रसभरी खरीदकर, अपने चौबारे चढ़ जाती थी, तो मैं रेहड़ी से रसभरी लेने पहुँच जाता था। रसभरी अब मुझे सभी फलों से अच्छी लगने लगी थी। पर मुसीबत यह थी कि रसभरी साल में दो तीन महीने आती थी।
वह कौन सी कक्षा में पढ़ती थी? मुझे पता नहीं था, पर उसे रिक्शा में पढ़ने जाते देखना, मेरा रोज का काम हो गया था, हमारे मुहल्ले की इस उम्र की लड़कियों ने या तो पढ़ना छोड़ दिया था या उनका पढ़ना छुड़वा दिया गया था और वे घर-घुस्सू हो गई थीं। पर यह लड़की रिफ्यूजी याने पाकिस्तान से विस्थापित थी। और इन रिफ्यूजियों मे एक खास खुलापन था। वह रिकशा में ऐसे बैठती थी, जैसे कोई रानी रत्न-जड़ित रथ पर या कोई मेम विक्टोरिया में बैठी हो। सचदेवों का बड़ा लड़का सुरेन्द्र, मेरे साथ पढ़ता था, वह शाम को कभी-कभार अपनी दुकान पर बैठ जाता था, मैंने उसे अक्सर सुरेन्द्र से बातें करते देखा था, मैं उसका नाम भी नहीं जानता था, पर शर्म के मारे सुरेन्द्र से भी नहीं पूछ पाया था। वैसे भी सुरेन्द्र शोहदों की टोली में था और मैं किताबचियों की टोली में।
शायद अब उसे भी पता चल गया था कि मैं उसे देखता रहता हूँ। अब वह भी कभी-कभी पलट कर मुझे देखने लगी थी। एक दिन मैं, रेलवे-क्रासिंग बन्द होने के कारण, फाटक के बाजू में पैदल-यात्रियों हेतु बने चरखड़े से, साइकिल निकाल रहा था, कि वह भी दूसरी और से उसमें से निकलने लगी। हमारी नजरें मिलीं, एक पहचान पल-भर के लिये कौंधी। फिर वह, मेरे हाथ पर हाथ रख कर चरखड़े से निकल गई। मैं सुन्न खड़ा रह गया था, उस छुअन के अहसास से। अगर पी़छे आता राहगीर मुझे न धकियाता, तो शायद मैं उम्र-भर वहीं खड़ा रह जाता।
मैं वहाँ से चला तो गुनगुनाने लगा था 'हम उनके दामन को छूकर आये हैं,हमें फूलों से तोलिये साहिब'।
अनेकों बार सूंघा था मैंने अपने उस हाथ को। मैंने तो अपने उस हाथ को चूमना भी चाहा था, पर मैं यह सोचकर नहीं चूम सका कि वह यह जानकर नाराज न हो जाये। आज उन बचकानी बातों को सोचकर हँसी आती है।
हमारी नजरें मिलने का सिलसिला लगभग दो साल चला। वह सामने से आती दिखती तो मैं जान-बूझकर आहिस्ता चलने लगता कि उसे ज्यादा देर तक देख सकूं। वह भी मौका मिलते ही मुड़-मुड़कर मुझे देखती तथा किसी के आ जाने पर अपनी गर्दन को हल्का सा झटका देती जैसे अपनी जुल्फें सँभाल रही हो।
एक बार तो पीछे मुड़कर देखते हुए वह मुस्कराई भी थी। उस वक़्त उसकी साफ-शफ़्फ़ाक बिल्लोरी आँखों मे एक चमक थी, एक पहचान थी, एक राज़ था, एक साझेदारी थी और भी जाने क्या-क्या था, शायद प्यार भी था। मुझपर कई दिन, एक अजीब सा नशा छाया रहा। फिर मुझे मेडिकल ऐन्ट्रेंस टेस्ट देने पटियाला जाना पड़ा। तीन दिन बाद ही लौट पाया था।
ट्रेन रात को पहुँच। स्टेशन से मेरे घर का छोटा रास्ता दूसरा था पर मै उसके घर की तरफ से लौट रहा था । उसके घर में एक कमरे की बत्ती जल रही थी, मैं खड़ा हो गया। मैं वहीं खड़ा उस खिड़की को देखने लगा। बाजार के चौकीदार के टोकने पर ही घर गया था।
उस रात के बाद वह मुझे कभी दिखाई नहीं दी। वह घर भी बन्द रहने लगा। मैं जाने क्यों उदास रहने लगा। वक़्त मेरी उदासी से बेखबर अपनी रफ़्तार से चलता गया।
एक दिन मैंने देखा कि डाकिया उसके घर की सीढीयां चढ़ रहा था। फिर उसने एक खत उनके बरमदे में फेंक दिया और चलता बना। मैं शाम होने पर, सीढियों पर चढ़कर बरामदे में पहुँचा, वहाँ बेंत की दो टूटी कुर्सियां पड़ी थीं। पर खत शायद हवा उड़ा ले गई थी। एक कुर्सी पर एक छोटा सा चिथड़ा सा पड़ा था, उठाकर देखा तो वह एक जनाना रुमाल था। अनजाने में, मैं उसे सूंघ बैठा; मुझे उसमें वही गंध महसूस हुई, जो उसके छूने पर अपने हाथ मे आई थी।