!!!

Thursday, December 30, 2010

मौसम झेल रहा मौसम का दंश-गीत







धुंध है
कोहरा है
ठिठुर-ठिठुर
बदन हुआ दोहरा है

झीलों में दुबके
बैठे हैं हंस
मौसम झेल रहा
मौसम का दंश
हर और ठिठुरन का पहरा है

परिजन घर में हैं
चोर इसी डर में हैं
राहगीर सभी
बटमारों की जद में हैं

टोपी पहन चौकीदार हुआ बहरा है

कोहरा
है झल्ला गया
सब तरफ़  बस
छा गया
जन जीवन हुआ, पिटा सा मोहरा है








हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु http://gazalkbahane.blogspot.com/

Saturday, December 25, 2010

जब विरह का जोगी अलख जगाता है

जब विरह का जोगी अलख जगाता है
तन झुलसे है और मन अकुलाता है

पलकें बोझिल हो जाती हैं
सांसे थम-थम जाती हैं
धड़कन रटती नाम पिया का
सुध-बुध सारी खो जाती है

तन इकतारा राग वैरागी गाता है

नींद परायी सपन पराये
मनवा एकाकी घबराये
सांसे तसल्ली दे  धड़कन को
धड़कन सांसो को समझाये

कौन भला ये बातें समझ पाता

जब विरह का जोगी अलख जगाता है
तन झुलसे है और मन अकुलाता है

हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु http://gazalkbahane.blogspot.com/

Friday, September 10, 2010

देखकर हालत बुतों की-

देखकर हालत बुतों की:हर देश की सरकार जन-हिताय,जन-सुखाय नीतियाँ,योजनाएँ बनाकर उन्हे लागू करके जनता की स्थिति सुधारने का दावा ही नहीं करती बल्कि अपने किये-अनकिये क्रियाकलापों का गुणगान करने के लिये अखबारों मे पूरे सफ़े के विग्यापन जारी करती है.और अपने नेताओं की याद में या वोट बैंक को राजी करने के लिये चौराहों ,पार्कों मे नेताओ के मुस्कराते दमकते चेहरों भाव -भंगिमाओं वाले बुत लगा देते हैं,कहने को ये बुत आम जनता,युवा पीढी हेतु प्रेरणा के श्रोत हैं ,पर क्या वास्तव में ऐसा है ?
    एक दिन टहलते हुए पार्क में लगी नेताजी सुभाषचंद्र बोस के बुत के पास पड़ी बैंच पर जा बैठा.पास ही एक दम्पति घास में बैठा था उनका ७-८ साल का बेटा धमाचौकड़ी मे मशगूल था,बच्चा बुत के पास आकर पत्थर पर खुदे नेताजी के विश्व प्रसिद्ध बोल अटक-अटक कर पढ़्ने लगा —-तु..म..मु..मुझे ..खू..खून..दो.खून दो फिर वह चिल्ला उठा.खू.अ अ न ,खून
 खून-खून की चिल्लाहट सुन मां बाप चौंककर पास आ गये; पूछने लगे क्या हुआ ? कहां है खून ?
 बच्चे ने नेताजी के बुत के नीचे इशारा करते हुए कहा ‘वो ! देखो’.लिखा खून देखकर उनकी जान में जान आई । वे हँसने लगे ,पिता बोला ‘बेटा इसमें डरने की क्या बात है ?’
 बेटा रुआंसा होकर कहने लगा ‘हेल्प द पूअर फेलो ,ही इज इल ,ही नीडस ब्लड .पापा यह आदमी खून मांग रहा है । यह बीमार है,आप टी.वी वालों को बुलायें । वे उस दिन उस गरीब लड़्की के लिये ओ निगेटिव खून की अपील कर रहे थे; उसे खून मिल गया था, इसे भी मिल जायेगा प्लीज पापा टीवी वालों को फोन करें । बच्चा उत्तेजित था.उसका पिता उसे गोद में लेकर उस महान उक्ति का अर्थ समझाने की नाकाम कोशिश कर रहा था । बच्चे की बात ने मेरे मन को उद्वेलित कर दिया और मैं अपने नगर के और बुतों का हाल जानने के लिये निकज पड़ा, तो पाया कि नगर के बुतों की हालत वाकई खराब़ थी ।
  गांधी जी की सफेद संगमरमर की प्रतिमा धूल से अटी पड़ी थी । उसपर बैठा कबूतर-कबूतरी का किलोल करता जोड़ा शायद उनके ब्रह्मचर्य के सिद्धान्त की धज्जियां उखाड़्ने की फ़िराक में था ।
 आगे चलकर  पाया कि बाबा साहेब की एक उंगली पर एक कव्वा बैठा था तथा दूसरे हाथ में पकड़े संविधान पर दूसरा कव्वा काबिज था तथा अपनी काक-द्रिष्टि से संदेहात्मक ताक-झांक कर रहा था । चंद्रशेखर आज़ाद के पिस्तोल पर बैठी एकाकी फ़ाख्ता संभवत: अमन का संदेश देने के मूड मे थी मगर श्रोताओं के अभाव मे मौन धारण किये थी ।
 सरदार भगत सिहं के बुत के नीचे बैठे दो मज़दूर बीड़ी का धुंआ उगल रहे थे.वे शायद किसी जीवित सिक्ख के सामने ये हरकत न कर पातेक । एक और नजारा इस तरह  था कारगिल में शहीद हुए दो जवानो के पिद्दी से बुतों के बीच एक स्थानीय नेता की विशाल रौबीली प्रतिमा विराजमान थी.वहीं दीवार पर किसी सुधि दर्शक ने लिख दिया था –
              जो था कभी सिंह आज मिरगछौना हुआ
              नेताजी के बुत के आगे शहीद बौना हुआ

आगे चला तो अनहोनी की आशंका से दिल दहल उठा एक जातीय नेता के बुत पर कई बच्चे चढ़े हुए थे । मुझे लगा कि उनके खेल खेल में कहीं नेताजी की बाँह या नाक टूट गई तो लेने के देने पड़ जाएंगे .क्योंकि ऐसा होते ही छुटभैये नेता जो ऐसे अवसरों की ताक में ही रहते हैं उन्हे राजनीति व अखबारों की सुर्खियों मे आने का मौका मिल जाएगा । वे धरना ,जाम पर उतर आएंगे और पुलिस को लाठी भांजने की सुविधा मिल  जायेगी । विरोधी पार्टियों को भी तो मुद्दा मिल जाएगा सरकार को कोसने का और इस सब को भुगतेगी जनता । यह सब सोचकर मैने ब्च्चों को हड़्काया तो वे वहां से भाग निकले । मुझे एक सार्थक काम करने का सुखद अहसास हुआ.यही नहीं एक चौराहे पर तो कैलाशवासी भगवान शिव को भगतों ने लोहे के कारागार में बंदी बनाकर बैठा रखा था- कारण चढ़ावे की सुरक्षा करना था. मेरे जहन में एक सवाल तब से बैठा है कि क्या हम अपने नेताओं के बुत चौराहे पर लगा कर क्या सचमुच नवपीढ़ी को कोई प्रेरणा दे पा रहें हैं या बैठे बिठाये इन राजनैतिक छुट- भैयों को दंगे फैलाने की,सामाजिक समस्यायें पैदा करने के हथियार सौंप रहे हैं,अगर आंकड़े एकत्रित कियें जायें तो पता लगेगा कि बुतों की तोड़-फोड़ से उत्पन्न जातीय व साम्प्रदायिक झगड़ों से कानून व्यवस्था बिगड़्ने एवं  उसे काबू करने में न केवल देश की करोड़ों की सम्पति का नुकसान होता है अपितु कितने बेकसूर लोगों की जान जाती है ।
      मेरी अल्प समझ के अनुसार अगर बुत लगाने आवश्यक ही हैं तो राज्यस्तर पर एक म्यूजियम बना दिया जाये,जहां जो भी संस्था या पार्टी बुत लगाना चाहे अनुमति लेकर त्तथा एक सुनिश्चित एकमुश्त न्यास राशि  जमा करवाकर बुत लगाले तथा नेताजी के निर्वांण या-जन्म दिवस पर म्यूजिम के प्रांगण में उत्सव मना ले । भगवानों- महात्माओं की प्रतिमाएं केवल मंदिरों या सभागारों में ही लगाईं जायें । इसका सुन्दर उदाहरण चंडीगढ़ या कोटा शहर है जहां के चौराहे फ़ूलों से लदे हुए आँखो व मन को मोह लेते हैं ।
 आज बुतों के हालात देखकर तो ये पंक्तिया मन मे उभरतीं हैं—
    
           देखकर हालत बुतों की हैं लगाते
           टूटने को आइनो से होड़ पत्थर
श्यामसखा ‘श्याम’१२ विकास रोहतक १२४०01



हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु http://gazalkbahane.blogspot.com/

Sunday, August 1, 2010

बूढा वक्त और बेहया आवाज

मैं
सुनसान अंधेरों
के जंगल में 
भटक रहा था
कि तेरी आवाज
रोशनी बनकर आई
और मेरा हाथ पकड़ कर
चलने लगी
बूढे वक्त को,
आवाज का ऐसा
करना
बेहयाई लगा
उसने आवाज को,गूंगा कर दिया
और मेरे रास्तों को
फ़िर अंधेरों से भर दिया
तब से अब तक
मैं सुनसान अंधेरों के 
जंगल में 
तेरी आवाज को
आवाज देता हूं 
और फिर
खाली हाथ लौटी
अपनी आवाज को सुनता हूं
अंधेरो में स्वयं को
टटोलता हूं
सिर धुनता हूं
























हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु http://gazalkbahane.blogspot.com/

Wednesday, June 9, 2010

बहुत कठिन तो नहीं है जीना- श्याम सखा

बहुत
कठिन तो नहीं है जीना
रोटी तो
सेठ मजदूर
सभी को देता है करतार
्पीने को 
पानी भी उपलब्ध है 
सभी जीवों को 
किसी को बोतल में बन्द 
मिनरल वाटर
तो किसी को पोखर का जल
हाँ तब तक जीना कठिन नहीं है
जब तक हम जीते हैं बायलॉजिकल जीवन
जीना कठिन हो जाता है,
बुद्धिजीवी बनते ही
भैंस या गाय जुगाली करते हैं
निगले हुए खाद्य की
जबकि बुद्धिजीवी जुगाली करता है
विचारों की
तर्कों की कुतर्कों की 
और उलझ जाता है खुद भी 
उलझा लेता है 
औरों को भी 
अपने बनाये जाल में जंजाल में 
इसीलिये कठिन हो जाता है 
जीवन इस धरा पर 
मनुष्य का

९/६/२०१० १०.०५ सुबह



हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु http://gazalkbahane.blogspot.com/

Sunday, May 9, 2010

औरत अबला रही होगी कभी -

अपने अपने हस्तिनापुर

बंधे थे
राजा दशरथ
अपने वचन से
इसलिए दु:ख पाए
या फिर शापगzस्त थे
श्रवण के
अंधे माता-पिता के श्राप से

मैं मगर
क्यों हूं दुखी
बंध गया हूं
कुछ अपावन सहूलियतों
में
एक अदद घर
या मकान
जिसकी कर्जे की किश्त
चुकाते-चुकाते शायद मैं स्वयं चुक जाÅंगा

घर में बिजली है
पानी है
उसका बिल भी तो देता हूं
अपने पसीने को बहाकर
फिर गृहकर
मरम्मत सफेदी
फर्नीचर हर चीज तो खून की किश्त
मांगती है

और एक अदद
औरत जो पत्नी की उपाधि से
विभूषित है
कभी औरत अबला रही होगी
अब तो अशक्त है पुरूष
संसर्ग के लिए भी
तो याचना करते हुए इंतजार करता है।

पत्नी नामक औरत
के बच्चे हैं
हां सत्य तो यही है
कि वे पत्नी के बच्चे हैं
वे पुरूष पति के
भी बच्चे हैं
यह कथन या तो महज छलावा है
या फिर
भzमित विश्वास
जो सत्य की कसौटी पर
शायद ही पूरा उतर सके

बच्चों की जरूरतें हैं
फीस टयूशन स्वीमिंग पूल
हाWबी क्लास टूअर यात्रा
जेब खर्च
कपड़ा लत्ता तन ढंकने को नहीं
बदलते फैशन
से रफ्तार मिलाने के लिए
और बदले में क्या
मिलता है ?

वही दशरथ
जैसा असहायपन
वही कुछ न, वही अशक्त संज्ञा
वहीं कुछ न, वही निश्वास
बस और क्या

पैर लग जाता है
बेटे का पैर लग जाता है
मैगजीन से
किताब से
उठाता उस किताब को
माथे से लगाता
माफी मांगता है
मगर
कुचल देता है
रौंदे देता है
मां बाप का दिल
अपने कंटीले तनाव भरे
व्यवहार से
माफी मांगना तो दूर
महसूस भी नहीं करता
कहता क्या किया है उसने।

बेटी भी
मस्त है, सपने देखती है
सपने बुनती है
पत्नी भी
अब कहाँ उसकी सुनती है
उसका घर-संसार
रिश्ते नाते-किट~टी पार्टियाँ है
पति के लिए
उसे भी फुर्सत कहाँ है?



हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु http://gazalkbahane.blogspot.com/

Thursday, April 22, 2010

क्या फर्क पड़ता है

क्या
फर्क पड़ता है
मेरे
जीने या मरने से ?
क्योंकि
मैं ना तो
जीते जी धरती पर बोझ हूँ
ना ही
मेरे मरने से दुनिया
खाली होने वाली है
क्या फर्क पड़ता है
मेरे जीने या मरने से
हाँ कुछ अन्तर
अवश्य आएगा
उस जगह, घर या
आसपास में
जहां मैंने इस
नाकुछ जीवन
के पचास साल
गुजार दिए हैं

मेरे बिस्तर का
वह हिस्सा खाली हो जाएगा
जहाँ मैं सोता हूँ
और मेरी पत्नी
कहलाने वाली औरत
को अकेले सोना पड़ेगा
क्येांकि वह
एक घरेलू भारतीय
महिला है
तथा जवान होते
बच्चों की माँ है,
कोई और
विकल्प भी तो नहीं हैं
उसके पास।

मेरे बेटे के
पास आ जाएगा अधिकार
मेरी जमा पूँजी को
अपने हिसाब से खर्च करने
का
इसलिए उसके आँसू
उसका ग
पत्नी के गम की तुलना में
क्षणिक होगा

मेरे दफ्तर की कुर्सी भी
एक दिन
के लिए
खाली हो जाएगी
फिर काबिज
हो जाएगा उस पर
बाबू राम भरोसे
बहुत दिन
से प्रतीक्षा में है
बेचारा
मेरी पुरानी साइकिल
को ले जाएगा कबाड़ी
क्योंकि
वह नहीं रह जाएगी
पहले भी कब थी ?
इस घर के लायक।

अलबत्ता
‘बुश’ मेरा कुत्ता
शायद ‘मिस’ करेगा
सुबह सुबह
मेरे साथ टहलना।
क्योंकि कोई और उसे
बाहर नहीं ले
जाता अल सुबह ;
पर शायद
उसके बरामदे का फर्श
खराब करने की आदत
से तंग आकर
पत्नी संभाल लेगी ;
यह काम भी,
और बुश भी
भूल जाएगा
मेरा दुलारना डाँटना दोनों

क्या फर्क
पड़ता है
मेरे जीने से
या मरने से ?
जीते जी मैं
बोझ नहीं हूँ

धरती पर
और मेरे मरने से
दुनिया नहीं है
खाली होने वाली

हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु
http://gazalkbahane.blogspot.com/

Wednesday, March 31, 2010

फायदा

इस


गूंगेपन से


बहुत फायदा हुआ है


मुझको


कि मौलवी की


अजान की जगह


खुदा


सुनता है दास्तां मेरी


हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु
http://gazalkbahane.blogspot.com/

Saturday, March 13, 2010

मुझे अब तक आस्कर नहीं मिला

 मुझे
अब तक आस्कर
नहीं मिला
न ही भविष्य में
मिलने की कोई संभावना है
क्योंकि
मैं सपने बेचता नहीं
सपने देखता हूं
और मेरे सपने न तो रंगीन
न ही ग्लैमरस
बेचारे मेरे सरीखे श्वेत-श्याम ही होते हैं

और मेरे जैसे
आम आदमी के सपने
ग्लैमरस कैसे हो सकते हैं
मेरे सपनों में
मेरा पेट भर जाता है

मन तृप्त हो जाता है
डकार लेता है
मेरे बेटे बेटी
पहुंच जाते हैं स्कूल

साफ़ सुथरी वरदी पहने

पर जैसे
ही आंख खुलती है
सच सामने आ खड़ा होता है
आंते मेरी खाली आंते 
कुलबुला रही होती हैं भूख से

पत्नी बीमार है

 इसलिये जाना पड़ता है
मेरी बेटियों को

कोठियों में झाडू-पौचा लगाने
बरतन मांजने
कहिये

भला
मुझे कभी मिल सकता है





























हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु
http://gazalkbahane.blogspot.com/

Saturday, February 27, 2010

जो बात है तेरी आंखो में कहां वो किसी बन्दूक की गोली में

 करता हूं  हर साल
तेरा इन्तजार होली में






तू आए तो मने दीवाली
मेरे दिल की खोली में












और फ़िर ऐ जानेमन
आए मुन्ना या मुन्नी
हर साल तेरी झोली में







 जो बात है तेरी आंखो में
कहां वो किसी बन्दूक की गोली में








राधा का श्याम है वो तो-मीरा का श्याम है
गोपियों मे मिल जाएगी इक आध मुझे भी
यह सोच के बना था  मैं ‘श्याम सखा’ ग्वाल टोली में







पर मीरां राधा ही नही
फ़िदा थीं सब गोपियां श्याम पर
नहीं टपका कोई हसीन आम मेरी झोली में








बुरा न माने कोई गोपी
और ‘श्याम’ जी आप भी
मुझको चढी है इस बार भी भांग होली में







to enjoy one more such poem klik  here

यही तो होली की मस्ती है

हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु
http://gazalkbahane.blogspot.com/

Wednesday, February 24, 2010

सूरज के घर का रास्ता-

दिन
अजनबी सा उगा
सुबह ने
अंगड़ाई लेकर
दोपहर को
बुलावा भेजा
दोनो सहेलियां
बैठकर
शाम की
बुराई करने लगीं
शाम बेचारी
बूढी सास सी
बहरी बनी सुनती रही
 और सूरज भगवान से
मौत की दुआ
मांगने लगी
सब भगवानो की मानिन्द
सूरज दयालु था
उसने अपने डैने
समेटे और
उड़ गया
सुबह और दोपहर
ने काम निबटाया
और ख्वाबों की
आगोश में समा  गईं
शाम तारों के मनके
गिनती
चांद से
सूरज के घर का
रास्ता पूछती-पूछती जागती रही




























हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु
http://gazalkbahane.blogspot.com/

Sunday, February 21, 2010

तुम गईं

 तुम
गईं
बन
दुल्हन
नईं,
व्यथा
बीते
दिनों
की
मैने
सही
                                       कब
                                       किससे
                                       कही.








हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु
http://gazalkbahane.blogspot.com/

Friday, February 19, 2010

कल्चर नहीं एग्रीकल्चर

हाँ
कला,संस्कृति
कल्चर के
नाम पर
हमारे पास थे
सिर्फ़
हल बैल
धरती फ़ावड़े
कुदाल बीज खरपतवार
इसीलिये
आप कहते हैं
हमारे पास
कल्चर के नाम पर
है सिर्फ़ एग्रीकल्चर
हम इन
तथ्यों को
जो आप बार-बार
गाली की तरह
फ़ेंक देते हैं
हमारी निरीह पसीने
में गंधाती देहों पर
हाँ
हम इन
तथ्यों को
नहीं नकारते
पर एक सवाल
बकौल आपकेहमारे कुंद जहन में
यह सवाल
बवंडर सा उठता है
अगर आप
कृपा करें
तो हम पूछ लें
आपसे श्रीमान्‌ !
कुरूक्षेत्र को झेला हमने
अठारह अक्षोहणि
सेनाओं का रक्त
बहता है
हमारी अनकल्चर्ड धमनियों में
आज भी
गूंजता हैं मराठों,तुर्को,सिखों
राजपूतो की खड्ग तलवारों की
झनझनाहट
का शोर
पानीपत की धरती पर
तैरती गर्म हवाओं में

अनेक
वीरों
के साथ दफ़न हैं
अनेकानेक
निरीह काश्तकारों के शव
हम खेत
होते रहे
हमेशा-हमेशा से
कभी इन्द्र-प्रस्थ
कभी दिल्ली को
बचाने की खातिर
और चलाते रहे हल कुदाल
फ़ावड़े
जिससे भरे पेट
आप श्रीमान का
और ले सकें
आप आनन्द
ठुमरी गजल
या ध्रुपद का

शायद
आप भी एक शास्वत सच
जानते हैं
भूखे भजन न होहिं गोपाला
कभी पढें
आप हमें भी
और जब पढें
तो दिल से पढें
हमारे दुख
हमारी पीड़ा
और सुने हमारी
छाती से उठते उन्मुक्त ठहाके
उन ठहाकों से ही
तो निकलते हैं
ध्रुपद-और ठुमरी
हम हैं हरियाणा के
स्वाभिमानी
किसान
हम जमीन से जुड़े हैं
अक्खड़ नहीं हैं हम























हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु
http://gazalkbahane.blogspot.com/

मुखौटे और यथार्थ



प्यार को
मुखौटे मत पहनाओ
मानता हूँ
सभी मुखौटे
बुरे नहीं होते
कुछ तो
यथार्थ से भी सुन्दर होते हैं

पर मुखौटे
मुखौटे हैं
यथार्थ नहीं
बुरा या भला
मुखौटा
यथार्थ को ढक लेता है
अपनी अच्छाई या बुराई से
यथार्थ
को यथार्थ रहने दो
मत
औढ़ाओ उसे
अच्छाई या बुराई ।

प्यार भी
सिर्फ प्यार रहे
न अच्छा
न बुरा-प्यार बस प्यार
न हो
वह देह
न हो देह व्यापार
17ण्2ण्96



हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु
http://gazalkbahane.blogspot.com/

Tuesday, February 9, 2010

बीमार कर सकती है टिप्पणी--सावधान हो जाएं

ब्लॉगिंग खुद को अभिव्यक्त करने का अच्छा साधन है
लेकिन हिदुस्तानी आदमी ने इसे टिप्पणीयों का साधन बना लिया है
और इसके कुपरिणाम भी आरम्भ हो गये हैं
मैं चिकित्सक हूं और मैने पाया है कि जो लोग टिप्पणी पाने के लिये टिप्पणी करने में जुटे हैं वे न केवल सार्थक अभिव्यक्ति से दूर हो रहे हैं-सार्थक पोस्ट न पढकर केवल टिपियाने में वक्त खराब कर रहे हैं ये लोग बिना पोस्ट पढे टिप्प्णी करते हैं और एवज में ऐसी ही टिप्पणी पाते हैं ,इसका उदाहरण आप एक विगेट से जो यह दर्शाता है कि आपके ब्लॉग पर लोग average वक्त कितना बिता रहे हैं इससे लग जाता है।
टिप्पणी ले दे के नुकसान अब स्वास्थ्य पर भी दिखने लगे हैं

जो लोग लाइफ़ स्टाइल बिमारियों से पीड़ीत हैं जैसे ब्लडप्रेशर,मधुमेह,अस्थमा,पेप्टिक अल्सर,अनिद्रा ,एन्गजाइटी.अवसाद या डिप्रेशन जैसे मानसिक रोग उनकी बिमारियां बढ जाती हैं .
पहले से अधिक दवा लेनी पड़ रही है,
अत: आप को आगाह किया जा रहा है टिपियाने को बिमारी न बना कर इसे भी सार्थक अभिव्यक्ति का साधन ही बनाए

इस बिमारी के लक्षण

१ पोस्ट करने के तुरन्त बाद भाग-भाग कर ब्लॉग पर आना कि कितनी टिप्पणी आईं
२-किसी खास व्यक्ति की टिप्पणी न आने पर उदास हो जाना-ऐसे समय मे आपका ब्लड प्रेशर बढ़ा मिलेगा
३किसी पोस्ट पर कम टिप्पणी आने पर उदास व चिड़्चिड़ा हो जाना
४-मनपसन्द टिप्पणी न आने पर उदासी चिड़चिड़ापन
-नेगेटिव टिप्पणी आने पर गुस्सा होना
६-किसी ने आपकी रचना की कमी बतला दी तो पहले नाराज होना,फ़िर या तो उसके ब्लॉग जो आपका पसन्ददीदा ब्लॉग रहा था जाना छोड़ देना या जाना पढ़ना मगर टिप्पणी न करना-यह भी अपने आप में एक हीनभावना से ग्रस्त होना ही है जो आगे चलकरमानसिक अवसाद रोग का कारण बनेगा-अच्छी रचना पर कंजूसी न करें खुलकर टिप्पणी करें
इस रोग का सबसे भयंकर लक्षण है अनाम anonimous बनकर चुभती टिप्पणी करना-इससे जहां एक और टिप्पणी पाने वाले को अवसाद ग्रस्त कर रहे हैं ,वही आप खुद को मानसिक अवसाद की ओर धकेल रहे हैं
आप तो इस तरह गलत तरीके से टिप्पणी के व्यसन addiction से बचे और कुंठाग्रस्त होने से बचें।पसन्ददीदा ब्लॉग पढे अच्छा लगे तो सार्थक क्रियात्मक टिप्पणी से नवाजें अन्यथा पचड़े में न पड़ेअच्छी न लगे पोस्ट तो कतई टिप्पणी न करें न अच्छा बता बांस पर चढाए न बुरा कह कर किसी का दिल दुखाएं।
कई ब्लाग आप को सम्मानित करने हेतु बचकाने निरर्थक सवालों  के जवाब पूछते हैं उस में समय बरबाद न करें।
इसी तरह आपके कमेन्ट पर बहस में उल्झाने वाले लोग मिलेंगे उन से कतराकर निकलें।

दुनिया के सबसे प्रभावी मनस-शास्त्र गीता का अनुसरण करें यानि कर्म करें फल [टिप्पणी ] की इच्छा में न पड़े।।

Saturday, February 6, 2010

तुम बतियाते रहे हो इससे उससे जाने किस किस से

सुनो
दोस्त
तुम बतियाते रहे हो
इससे
उससे
जाने किस किस से
भूल गये
इस आपा-धापी
खुद को स्वयं  को
यानी मुझे.
जो बैठा कब का
धड़क रहा है तुम्हारे भीतर
चलो आज अवकाश लेलो
आकस्मिक
या अर्जित
और बैठो मेरे
यानि खुद अपने साथ
पूछो
खुद से खुद का हाल
सहलाओं अपने जख्मों को
बेचारे
कब से तुम्हारी बाट जोह रहे हैं
रिसते रहते हैं
कुछ नहीं कहते हैं
बस मौन रहते हैं
ये रिश्तो की तरह
न तो बौखलाते हैं न पगलाते हैं
कहीं बहुत बेहतर हैं
ये रिसते जख्म
सड़े-गले रिश्तों से
अभी भी सहेजे हैं ये जख्म
अहसासों की टीस
कह सकते हैं
ये जख्म
ऊधो मन न होत दस-बीस
रिश्ते
स्वार्थी हैं
संबंधो के जाल बुनते है
फ़िर पगलाकर सिर धुनते हैं
जख्म तुम्हारे अपने है
जब तब तुम्हे सहलाते हैं
न रिश्तों से बहकाते हैं
न सब्ज-बाग दिखलाते हैं
आओ
बैठो कुछ इनकी सुनो
कुछ अपनी कहो
बहुत हुआ
अब चुप मत रहो

५/२/२०१०



हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु
http://gazalkbahane.blogspot.com/

Thursday, February 4, 2010

नारी सिकुड़ती है, सिमटती है

8
नारी
नारी
सिकुड़ती है, सिमटती है
पुरुष को
रास्ता देने की खातिर
नारी
फैल जाती है
पुरुष के अघ औगुण
ढांपने की
कोशिश में


                                                                  बदलता रूप

                                                                    मैंने
                                                                       उम्रभर देखा है
सिर्फ एक लड़की को
यूँ उसके रूप
बदलते रहे हैं
मौसम की तरह

पहले वह मेरी माँ थी
फिर बहन
फिर पत्नी
फिर बेटी
बेटी फिर माँ बन गई थी
क्योंकि
वह मुझ सा बेटा (नाती) जन गई थी।



 


"चुप भी तो रह पाना मुश्किल-gazal-":यहां देखें
http://gazalkbahane.blogspot.com/

Wednesday, January 27, 2010

बदन हुआ दोहरा है-





धुंध है
कोहरा है 

ठिठुर-ठिठुर 
बदन हुआ दोहरा है

झीलों में दुबके
बैठे हैं हंस
मौसम झेल रहा
मौसम का दंश
हर और ठिठुरन का पहरा है


परिजन घर में हैं
चोर इसी डर में हैं
राहगीर सभी
बटमारों की जद में हैं

टोपी पहन चौकीदार हुआ बहरा है

कोहरा
है झल्ला गया
सब तरफ़  बस
छा गया
जन जीवन हुआ, पिटा सा मोहरा है

हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु
http://gazalkbahane.blogspot.com/

Saturday, January 23, 2010

चंदा घर जा बैठा है साहिब









धुंध है
अंधेरा है

नभ से उतर कोहरे ने

धरा को घेरा है


दुबके पाँखी

गइया गुम-सुम

फूलों से भौंरे

तितली गुम

मौसम ने मौन राग छेड़ा है


ठिठुरे मजूर
अलाव ताप रहे
पशु पंछी भी

थर-थर काँप रहे

धुंध में
राह ढूंढ रहा सवेरा है

रेल रुकी
उड़ पाते विमान नहीं

सहमी फ़सलें

खेत जोतें किसान नहीं


सूझे हाथ न तेरा मेरा है

सूरज की

किरने हुईं गाइब

चंदा घर जा

बैठा है साहिब

सब जगह कोहरे का डेरा है





हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु
http://gazalkbahane.blogspot.com/

Saturday, January 16, 2010

वह कौन थी-?


वह

वह
एक अरसे से
मेरे
पीछे पड़ी थी
मैंने
लाख
पीछा छुड़ाना चाहा
पर
कामयाब नहीं हुआ

मैंने
उसे
एक दिन बहुत डराया
धमकाया
यहाँ
तक कि मैंने
उसे
धमकी दे डाली कि
मैं उसका गला घोंट दूंगा।

वह
मेरी नादानी
पर मुस्कराई
जैसे
कोई बड़ा बुजुर्ग
छोटे बच्चे
की
नादान शरारत पर
मुस्कराता है


मैं
उससे आजिज
आ गया था
वह तो
परछाई से भी
ज्यादा
चिपक गई थी
मुझसे,

जब डराने
धमकाने का
कोई
असर नहीं
हुआ
तो मैं
खुशामद पर उतर आया

जब
खुशामद भी
नाकाम हो गई
तो
मैं
रोने गिड़गिड़ाने लगा

वह मेरे
रोने पर
पसीज गई
और
खुद भी
रोने लगी
उसकी सिसकियों के
बीच मैंने
सुना,
पगले !
हम पर न कभी
मनुष्य का
हुक्म चला है
न चलेगा
वह
और कोई नहीं
मेरे जहन से
लिपटी
एक
पुरानी याद थी
जो
आज भी
अब भी
मेरे
जहन से लिपटी है
मेरे साथ है।

31ण्8ण्97
रात्रिा दो बजे

हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु
http://gazalkbahane.blogspot.com/

Thursday, January 7, 2010

जब तक सूरज की पीठ न आ जाए,


चलो.....

चलो
इन जानी पहचानी
पगडंडियों को
छोड़ कर
बीहड़ में चलें,
और वहाँ पहुंच कर,
पीठ से पीठ
मिलाकर खड़े हो जाएं
और सफ
शुरू करें
अलग-अलग
एक दूसरे से विपरीत दिशा में
और भूल जाएं कि धरती
गेंद की तरह गोल है,
चलते रहें तब तक
जब तक पाँव थक कर
गति को नकार दें,
चलते रहे तब तक
जब तक सूरज की पीठ जाए,
तब तक
जब तक
अन्धेरा, बूढ़े बरगद की
कोपलों पर
शिशु से कोमल
पाँव रखता,
शाखाओं पर भागता,
तने से उतरकर
धरती पर बिखर जाए,
चलते रहें
तब तक
जब तक
बारहसिंगों की आँखें
चमकने लगे चारों ओर
और फिर
एक स्तब्धता
छा जाए
मौत सी।
चमकती आँखें दौड़ने लगे
तितर-बितर,
फिर एक
दहाड़ यमराज सी दहाड़,
जम जाए
रात की छाती पर।
मैं टटोलता सा
आगे बढूं
और छू लूँ तुम्हारी
गठियाई
उंगलियों को
चलो जानी पहचानी
पगडंडियों को छोड़ कर
चल दे
बीहड़ में



15.7.96 9 बजे रात

हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु
http://gazalkbahane.blogspot.com/

Friday, January 1, 2010

कोयल सी चहके

कोयल सी चहके


फूलों सी महकें





जीवन भर खुशियां





घर आंगन में कें
नव-
नूतन वर्ष में सुख-म्पदा के बरसें घन
दुख दूर कहीं छुप बैठे,प्रफ़ुल्लित हो हर्षें तन- मन

हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु
http://gazalkbahane.blogspot.com/