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Friday, September 2, 2011

Dr.shyam skha shyam appointed Director sahitya acedemy Hariyana

मित्रो ! 
  आप सदैव मेरी रचनाओं को अपने विचारों से सहेजते ,नवाजते रहें हैं | मैं आप सभी का ह्रदय से कृतज्ञ  हूँ |
आप सभी को यह जानकर प्रसन्नता होगी कि महामहिम राज्यपाल हरियाणा द्वारा आपके इस मित्र को directer
साहित्य अकादमी हरियाणा नियुक्त किया गया है.मैंने यह पद कल १ सितम्बर गणेश चतुर्थी के दिन ग्रहण कर लिया है| इस पद दायित्व को निभाने हेतु मुझे आपके ऐसे ही सद् भाव पूर्ण प्रोत्साहन व् दुआओं की आवश्यकता रहेगी |अकादमी पत्रिका हरिगंधा का अगला अंक ग़ज़ल पर आधारित होगा आप अपनी सशक्त ग़ज़ल बहर को जांच कर भेजें \ 
पता    -डाक्टर श्याम सखा श्याम निदेशक हरियाणा साहित्य अकादमी प्लाट नo16,सेक्टर 14 पंचकुला हरियाणा|

हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु http://gazalkbahane.blogspot.com/

Wednesday, August 31, 2011

पीड़ा का राजकुअंर---गोपाल दास नीरज उर्फ़ जस की तस धर दीनी चदरिया


पीड़ा का राजकुअंर---गोपाल दास नीरज उर्फ़ जस की तस धर दीनी चदरिया
         नीरज नीं आया तां कुड़ियां वी नहीं आणीं,तू तरीख बदल दे। [नीरज जी नहीं आये तो लड़कियां कवि सम्मेलन में नहीं आएंगी, इसलिये तू कवि सम्मेलन की तारीख बदल दे] बात १९६३-१९६५ के बीच की है-स्थान वैश्य शिक्षण संस्थान रोहतक हरियाणा । मैं तब कल्चरल कल्ब का विद्यार्थी सचिव था
हमारे अध्यक्ष थे प्रोफ़ेसर अवस्थी और बोलने वाला था मेरा लंगोटिया दोस्त सुरेन्द्र सचदेवा जिस पर कालेज की अधिकांश लड़कियां मरती थीं। लड़कियों ने यह विरोध सुरेन्द्र के द्वारा मुझ तक पहुंचाया गया था। उन दिनों वैश्य कालेज में स्वस्थ कविसम्मेलनों की परम्परा रही थी जो तब तक चली जब तक फ़ूहड़ हास्य मं पर काबिज नहीं हुआ था।आखिर कवि सम्मेलन की तिथी बदली गई-ऐसा रहा है नीरज का रूतबा- वे सही मायनो में मंच व कविता के सुपर स्टार रहे है,है।
  उस कवि सम्मेलन के बाद मेरा दाखिला एडिकल कालेज में हो गया और वैश्य कालेज में भी कवि सम्मेलनों का काफिला खत्म हो गया। उस दिन नीरज जी को जो सुना वह आज तक हृद्‌य पर अंकित है। आप भी शामिल हो जाएं मेरी यादों की महफिल में
 अस्त-व्यस्त बालों,  अधखुle-अधमुंदे नयनो ,नीचे झूल आये निचले होंठ से जैसे ही नीरज का गीत- मैं पीड़ा का राजकुअंर हूं /तुम शहजादी रूपनगर की/हो गया प्यार अगर हो भी गया तो बोलो मिलन कहां पर होगा/  तो पंडाल में लड़कियों के प्रभाग मे ’कुआंरियां दा दिल मचले/आजा छत्त ते जिंद मेरिये [कुआंरियों का दिल मचलने लगा है इसलिये वे अपने प्रिय को कह रहीं हैं कि कम से कम अपने मकान कीछत पर ही आ जाओ जिससे उसके दर्शन कर ह्रद्‌य मे कुछ शीतलता पड़े} माहौल तारी हो
गया था।
 नीरज सचमुच पीड़ा के राजकुअंर है, विरह के शहंशाह हैं। नीरज ne पीड़ा को विरह को भगवान शि
की तरह ताउम्र कंठ में धारण किया हुआ है। वे सुकरात की तरह विष को पीकर मरे नहीं उन्होने पीड़ा के विष को अमर कर दिया। एक शायर का शे‘र 
दर्द तो जीने नहीं देता मुझे/और मैं मरने नहीं देता उसे 
उनकी फिलास्फ़ी को उजागर करता है।
उन दिनो, चांदनी की चादर सी,जुगनुओं जैसे शब्दों से बुनी,शहद और महुए की शराब रसवन्ती सी      उनकी कुछ रचनाये मन- मस्तिक पर आज भी अंकित हैं। ए रचनायें न केवल महकाती हैं अपितु बहकने को मजबूर कर देतीं हैं।
  उनका गीत

  मां मत हो नाराज कि मैने खुद ही मैली की न चुनरिया

  मैं तो हूं पिन्जरे की मैना क्या जानूं गलियां गलियारे

 तू ही बोली जाऊं देखूं मेला नदी किनारे/

मेलों से अनुराग हुआ जब/ माटी से संबन्ध हुआ तब/

बिल्कुल बेदाग कैसे रह पाये चुनरिया/

जो कुछ हुआ उसे भुला दे /संटी छोड़ बाल सहला दे

तेरी भी ममता न मिली तो जाने क्या कर बैठे गुजरिया
किशोर मन के भीतर से उठती माटी की सौंधी सी,अलबेली गंध क्या भूली जा सकती है?
सपना क्या है नयन सेज पर सोया हुआ आंख का पानी

और टूटना उसका जैसे जागे कच्ची नींद जवानी

गीली उम्र बनाने वालो/डूबे बिना नहाने वालो

केवल कुछ पानी के बह जाने से सावन नहीं मरा करता है
या
केवल कुछ मुखड़ों की नाराजी से दर्पण नहीं मरा करता है।
कलेजा चीरने वाली चीख के साथ-साथ जीने की अदभुत उद्य्याम ललक एक साथ कहां मिलेगी भला?
लो फिर अपत्र हुई डाल अमलतास की।कुछ और बढ़ी अवधि इस अभुझ प्यास की
और उसके बाद
उनका एक और अमर गीत
 सपन झरे फ़ूल से…..
कारवां गुजर गया… गुबार देखते रहे
 मानो पीड़ा का विरह का ज्वाला मुखी फ़ट गया था। पीड़ा को इतनी गरिमा महादेवी के बाद कोई दे पाया है तो हिन्दी में नीरज और पंजाबी में शिव बटालवी ही है

ये पंक्तियां मेरे किशोर मन पर तब से अंकित हैं और मैने इन्हे जस की तस धर दीनी चदरिया की तरह आप तक परोसा है।

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Monday, August 22, 2011

मीरा राधा श्याम -जन्म अष्टमी पर विशेष




सखी री,मोहे नीको लागे श्याम.
मोल मिल्यै तो खरीद लेउं मैं,दैके दूनो दाम
मोहिनी मूरत नन्दलला की,दरस्न ललित ललाम
राह मिल्यो वो छैल-छबीलो,लई कलाई थाम
मौं सों कहत री मस्त गुजरिया,चली कौन सों गाम
मीरां को वो गिरधर नागर,मेरो सुन्दर श्याम
सखी री मोहे नीको लागै श्याम



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Monday, August 15, 2011

बही में वक्त की लिखा गया क्या नाम ‘श्याम’ का -- gazal-shyam skha

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नकाब ओढ़कर महज नकाब जिंदगी हुई
यूँ आपसे मिली कि बस खराब जिंदगी हुई

मुझे निकाल क्या दिया जनाब ने खयाल से
पड़ी हो जैसे शैल्फ पर किताब जिंदगी हुई

लगा यूँ सालने कभी अँधेरे का जो डर उसे
समूची जल उठी कि आफताब जिंदगी हुई

गुनाह में थी साथ वो तेरे सखी रही सदा
नकार तूने क्या दिया सवाब जिंदगी हुई

वो सादगी, वो बाँकपन गया कहाँ तेरा बता
जो कल तलक थी आम, क्यों नवाब जिंदगी हुई

हकीकतों से क्या हुई मेरी थी दुश्मनी भला
खुदी को भूलकर फ़कत थी ख्वाब जिंदगी हुई

तेरे खयाल में रही छुई-मुई वो गुम सदा
भुला दिया यूँ तुमने तो अजाब जिन्दगी हुई

फुहार क्या मिली तुम्हारे नेह की भला हमें
रही न खार दोस्तो गुलाब जिन्दगी हुई

खुमारी आपकी चढ़ी कहूँ भला क्या ‘श्याम’ जी
बचाई मैंने खूब पर शराब जिंदगी हुई

बही में वक्त की लिखा गया क्या नाम ‘श्याम’ का
गजल रही न गीत ही कि ख्वाब जिंदगी हुई



मफ़ाइलुन ,मफ़ाइलुन ,मफ़ाइलुन ,मफ़ाइलुन [४.२.१९९३]

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जीवन जीलें चोखा चोखा












आंधी या 
तूफान आयें
या छा जाएँ 
घनघोर घटायें 
सूरज 
अविरल जलता  रहता है 
दुःख सुख की 
आंधी में
जीवन भी बस चलता रहता है
कल पिता थे 
आज मैं 
 कल बेटा होगा 
 यही अमरता का है धोखा
 छोड़ उलझने यारा
आ 
जीवन जीलें चोखा चोखा


  










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Monday, July 18, 2011

कहानी-रम-बाबा

रम-बाबा


मैं और राजू पुराने दोस्त व सहपाठी हैं, लगभग दस साल पुरानी बात है । मैं डॉक्टरी पास कर चु्का था और राजू वकालत । दोनों ने अपने कस्बे पास के नगर में प्रैक्टिस शुरू की थी। राजू शाम को कचहरी की धूल फाँककर खाली जेब, खाली पेट मेरे कलीनिक पर आ जाता था । जहाँ मैं भी लगभग सारा दिन खाली बैठा मक्खियाँ मारता था। हम दोनों आमने-सामने बैठे, एक-दूसरे के चेहरे को चुपचाप घूरते, सोचते, कयास लगाते कि किसने, कौन सा तीर मारा? अधिकतर हम एक-दूसरे के चेहरे पर ऊब, थकान और हताशा को पढ़ते। तब तक पास की दुकान का चाय वाला छोकरा, जिसे राजू आते-जाते चाय बोल आता था, आकर मेज पर चाय रख देता। हम दोनों, अपने-अपने गिलास में चाय को ऐसे झांकते जैसे वह मुवक्किल और मैं मरीज खोज रहा होऊँ ।फिर पुरानी आदतवश लगभग इकट्ठे गा उठते, ''हम होंगे कामयाब, हम होंगे कामयाब, एक दिन'' और चाय का गिलास उठाते चियर्स कहकर गिलास टकराते और ठहाका मारकर हँस पड़ते।

गर्दिश में दिन बीत रहे थे। राजेंद्र को कभी-कभार कोई जमानती केस मिल जाता या मेरे पास कोई एक्सीडेंट का मरीज आ जाता तो हम बढ़िया होटल में जाकर जश्न मनाते। मैं हर मरीज पर व राजू हर मुवक्किल पर वे सारे नुस्खे आजमा चुके थे, जो हमने डेल कारनेगी की पुस्तक 'सफल कैसे हों'' में पढ़े थे। मगर शायद वे नुस्खे बहुत पुराने हो चुके थे और आज के जमाने में कारगर नहीं हो रहे थे या कि हम दोनों थे ही इतने घामड़ कि प्रेक्टिस हमारे बलबूते की बात नहीं थी। हम लोग मायूस होकर नौकरी करने की सोच रहे थे।

एक दिन अनायास ही हम दोनों की मुलाकात ऐसे व्यक्ति से हो गई, जो सफलता के अनूठे नुस्खे जानता था। हर वर्ग, हर उम्र के व्यक्ति उससे सलाह लेने जाते थे। हमने शुरू-शुरू में तो उसके पास जाना अपनी तौहीन समझा क्योंकि वह एक मैला कुचैला बूढ़ा था, जिसकी शक्ल से ही शैतानियत टपकती थी। उसकी लंबी-उलझी गंगा-जमुनी दाढ़ी के हर बाल से मक्कारी लटकती नजर आती थी। उसकी सफाचट खलवाट ऐसे चमकती थी, जैसे मरुस्थल में नखलिस्तान । उसकी, भूरी मिचमिचाती आँखे देखकर ''सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली'' कहावत याद आ जाती थी। लोग उसे जाने क्यों हरफन- मौला हुनरमन्द कहते थे? जबकि वह कभी कुछ काम करता नहीं देखा गया था। वह कहाँ रहता था हमें मालूम ही नहीं था? मगर वह सप्ताह के अन्तिम दो दिनों में जाने कहाँ से शहर के बीचों-बीच बनी मस्जिद की सीढ़ियों पर बीड़ी पीता दिख जाता था। निठल्ले जुआरी-सट्टेबाज दाँव या लाटरी का नंबर पूछने की गरज से उसके आस-पास मंडराते रहते थे। वह सबसे लापरवाह अपनी बीड़ी के कश लगाता आसमान निहारता रहता था। कई बार संभ्रान्त दिखने वाले आदमी और औरतें कारों में आते उसको सलाम-नमस्ते करते उसके पास सीढ़ियों पर बैठ जाते। ऐसे वक्त जुआरी तथा सटोरिये दूर खिसक लेते थे।


मेरे पड़ोस में लाटरी स्टाल लगाने वाला गुलशन मदान उसका बड़ा भक्त था। मैंने हुनरमन्द को कई बार उसके साथ जाते देखा था। आज शनिवार था मदान शाम को उसके पास जाता था। मैंने मदान को बुलवाया और उसके बारे में पूछा तो मदान खिल उठा, कहने लगा ''ओ साहब रम-बाबा (मदान तथा कुछ लोग उसे रम-बाबा कहते थे) तो बादशाहों का बादशाह है। हर धंधे के बारे में ऐसे जानता है जैसे दाई औरत के पेट को। उसके नुस्खे लाजवाब होते हैं, तुसीं (आप) कदी ( कभी) आजमा के देखो।''
मैं खाली बैठे, मक्खी मारते-मारते तंग आ चुका था। अतः पूछ बैठा कि वह मस्जिद के अलावा कहीं और मिल सकता है ?

''ओह! तुसीं हुक्म करो! मैं तुहाडे कोल ले आवांगा (अजी ! आप हुक्म करें, मैं उसे आपके पास ले आऊँगा)। ''

मैंने कुछ सोचकर कहा ''ठीक है, आज ही ले आओ, रात नौ बजे के बाद ।''

मैं लगभग साढ़े आठ बजे क्लिनिक बन्द करके ऊपर कमरे पर आ गया। राजेन्द्र भी कमरे पर था। दस दिन से उसने किसी मुवक्किल का मुँह नहीं देखा था। अतः वह बोतल खोले बैठा था। जब मैंने उसे बतलाया कि मदान बूढ़े हुनरमंद को ला रहा है तो वह उछल पड़ा,
''चलो मुवक्किल न सही, शायद कहानी का मसाला ही हाथ लग जाए ।''राजू कभी-कभार कविता-कहानी लिख लेता था, उस की चार-पाँच कहानियाँ छप चु्कीं थी। मुझे इस तरह का कोई शौक न था।लगभग साढ़े नौ बजे गुलशन हुनरमंद को लेकर आ पहुँचा। काईयाँ गुलशन के चेहरे पर अजीब तरीके श्रद्धा चिपकी हुई थी। उसने उस लंबे-तगड़े बूढ़े हुनरमंद को कुर्सी पर बैठा दिया और खुद जमीन पर उसके करीब बैठ गया।
बाबा ने सिगरेट सुलगाकर लंबा कश लिया और बोलने लगा, उसकी आवाज उसके डील-डौल, हुलिये के मुकाबिल बड़ी निराली थी । ''बेटो आजकल पैसे मेहनत, ईमानदारी, शराफत से नहीं, हुनर से कमाए जा सकते हैं । डॉक्टर तेरा धंधा थोडा मुश्किल है,अगर धंधा करना है तो प्रोफेशनल हो जा । रूह यानि आत्मा घर छोड़ आया कर क्लिनिक साथ मत लाया कर । देख, जो लोग तुझे फीस देने में आना-कानी करते हैं ना, उनसे निबटने का व फीस वसूल करने का सरल नुस्खा है ।
फिर मदान ने थैले से रम की बोतल निकाली और बाबा के सामने रख दी। रम-बाबा की आँखें छत पर टिकी थीं। मदान उसके पैर दबाए जा रहा था। लगभग दस मिनट बीते होंगे। रम बाबा ने हुंकार लगाई ''बोल अलख! दे किस्मत पलट'' और उसकी नजर मेज पर रखी रम की बोतल पर गई। वह बोतल को घूरने लगा। मैं और राजू अब तक चुपचाप तमाशाई बने बैठे थे और रम बाबा तो जैसे हमारी मौजूदगी से बेफिकर था, फिर उसने बोतल का कार्क खोला, लगभग चौथाई बोतल फर्श पर उड़ेल दी। राजू उठकर कुछ कहने को हुआ। मैंने उसका हाथ पकड़ लिया। रम बाबा ने बोतल मुँह से लगाई और देखते-देखते वह लगभग पूरी बोतल ही गटक गया। वह फिर छत या आसमान की तरफ ताकने लगा था। मदान अपने उसी कांईयाँ हाव-भाव से बाबा के दुबले पतले रोयेंदार पाँव दबाए जा रहा था। हम पर एक-एक पल भारी होता जा रहा था।

लगभग पाँच मिनट बाद, रम बाबा फिर जमीन पर लौटे और बोले, ''बोल अलख ! मूरख निपट! किस्मत पलट! मदान ने हमें संकेत किया। शायद इन्सान की फितरत ही ऐसी है कि अजीब व लीक से ह्टकर अनजानी शक्तियों को पूजने लगता है। जैसे गुफा मानव सूरज, पवन, पहाड़, आग, बादल, नदी, बिजली आदि को डरकर पूजता था उसी तरह आज भी हम जब भविष्य के प्रति अनिश्चित होते हैं तो गु्फा मानव की भयभीत मानसिकता में आ जाते हैं और ज्योतिषी, पंडितों, साधुओं, तांत्रिकों तथा पीठ, मजारों की गैबी ताकत के आगे झुक पड़ते हैं । शायद यही कारण था कि राजू और मैं मदान के संकेत पर रम बाबा के सामने हाथ जोड़कर जमीन पर बैठ गए।

मदान ने पैर दबाते-दबाते, बड़े दयनीय भाव से बाबा से कहा, ''बाबा! यह साडे डॉक्टर साहब ने ते एह ने वकील साहब, इन्हांदा उद्धार करो, इन्हानूं इन्हां दे पेशे दे कामयाब नुस्खे बतलाओ और सिगरेट की एक डब्बी व माचिस रम बाबा को पकड़ा दी।
बाबा ने सिगरेट सुलगाकर लंबा कश लिया और बोलने लगा, उसकी आवाज उसके डील-डौल, हुलिये के मुकाबिल बड़ी निराली थी । ''बेटो आजकल पैसे मेहनत, ईमानदारी, शराफत से नहीं, हुनर से कमाए जा सकते हैं । डॉक्टर तेरा धंधा थोडा मुश्किल है,अगर धंधा करना है तो प्रोफेशनल हो जा । रूह यानि आत्मा घर छोड़ आया कर क्लिनिक साथ मत लाया कर । देख, जो लोग तुझे फीस देने में आना-कानी करते हैं ना, उनसे निबटने का व फीस वसूल करने का सरल नुस्खा है । मान ले, तेरे पास कमर दर्द का मरीज आया, उसे जाँच कर दवा लिख दे पर उसके एक्स-रे मत कर । क्या बचेगा एक्स-रे में बीस-तीस रुपये, दवा भी ऐसी लिख कर पूरा आराम न हो, दूसरी बार जब वह आकर कहे कि, आराम कम है तो उसे दवा बदलकर दे दे तथा उसके कान में चुपके से डाल दे कि आराम नहीं हुआ तो सी.टी. स्केन की सोचेंगे कहीं कोई बड़ी बीमारी न हो । तीसरी बार साला खुद सी.टी. स्केन पर खरचेगा । तुझे चार सौ रुपए कमीशन के मिलेंगे, जो उसने तुझे पूरी बीमारी में नहीं देने थे ।''

''वो जो तेरे सामने डॉ. रजनी है ना भूखों मरती थी । एक दिन उसे नुस्खा बतलाया था। आज देख कर, कोठी, बंगला सब है साली के पास । बतलाऊँ? नुस्खा क्या था ? सुन उसके पास जब भी कोई औरत या लड़की जाँच हेतु पेशाब टैस्ट कराने आती है ना तो वह उसे बातों में लगाकर पता कर लेती है कि उसे बच्चा चाहिए कि नहीं, अगर औरत को बच्चा नही चाहिए तो वह टैस्ट रिपोर्ट में चाहे बच्चा आए या ना आए उसे कहती है कि रिपोर्ट पॉजटिव है। माने उसे बच्चा है अब तो औरत के पाँव तले की धरती निकल जाएगी और अगर लड़्की कुंआरी हुई तो आसमान टूट पड़ेगा उस पर और वह हर हालत में अबार्शन करवाएगी । टैस्ट में डाक्टर को क्या खाक बचना था ? '' अब बेहोशी का टीका लगाया । थोड़ी-सी छेड़छाड बच्चेदानी में की और पा लिए सैकड़ों रुपए बिना अबार्शन किए । सच बताऊँ उसे अबार्शन करना आता ही नहीं, असली अबार्शन तो उसकी असिस्टैंट डॉक्टर ही करती है और तू वकील, तेरा मामला तो आसान है । बस एक बार मुवक्किल फंसा ले, कितनी ही थोड़ी फीस ले ले, दस-पाँच पेशियों के बाद मुवक्किल को मुंशी से समझवा दे कि जज रिश्वत खाकर फैसले करता है । फिर देख मुवक्किल खुद ही तेरे पास भागा आयेगा रिश्व्त की पोटली लेकर। एकदम से मत रख लेना। कहना, टाउट ढूँढता हूँ । मुवक्किल के बार-बार जोर देने पर रिश्वत के पैसे रख लेना, यह कहकर कि टाउट मिल गया है और अपने खिलाफ के वकील को भी इसी तरह तैयार करले अब वादी-प्रतिवादी दोनों में से एक को तो जीतना ही है । बस हारने वाले के पैसे ईमानदारी से वापिस कर दो और जीतने वाले के पैसे दोनों वकील आधे-आधे बाँट लेना । हारने वाले से कहना कि तेरा केस तो पक्का था शायद दूसरी पार्टी ने रिश्वत ज्यादा दे दी । अब तो बुरा जमाना आ गया भाई पर कोई बात नहीं, हाईकोर्ट है ना और उससे अपील करवाकर हाईकोर्ट के वकील से कमीशन ऐंठ । बाबा कहकर चुप हो गया, फिर कहने लगा, ''अरे ! तुम ऐसा नहीं करोगे तो जज ऐसा करेंगे । मैं खुद पेशकार था, कभी, बहुत कुछ देखा है मैंने । एक जज तो बड़ा ईमानदार किस्म का बेईमान था । वह कभी भी हारने वाले को नहीं जिताता था, चाहे कितने ही पैसे कोई क्यों न दे ? उसका तरीका बड़ा नायाब था बहस के बाद, फाइल पढ़कर देख लेता वादी या प्रतिवादी में से कौन जीतेगा ? बस जीतने वाले के पीछे, मुझे लगा देता और जब तक वह प्रसाद न चढ़ा देता । तारीख लगती रहती । प्रसाद चढ़ाने पर ही फैसला लिखा जाता । न मिलने पर जज के तबादले पर अगला जज ही फैसला लिखता। दुबारा बहस सुनकर ।'' रम बाबा कुछ सौम्य हो चले थे । शायद उन्हे भी इस बात का एहसास हो गया था । उन्होने रम की बची-खुची बोतल गले में उड़ेली छत की तरफ ताका और ''अलख-किस्मत-पलट''कहकर उठकर चल दिए।

मैं और राजू भी राजू की लाई विहस्की पीकर सो गए । रात अचानक मुझे लगा कमरे में भूचाल आ गया है। उठा तो मालूम हुआ कि भूचाल नहीं आया था । राजू मुझे जोर-जोर से हिलाकर उठा रहा था ।
''ओ सिविल सर्जन उठ ! एमरजेंसी आई है, खड़ा हो यार, क्या गधे बेचकर सोता है, तू ? डॉक्टर की नींद तो कुत्ते जैसी होनी चाहिए ।''

मैं जल्दी से उठकर नीचे गया, देखा पड़ोसी रामकिशन हलवाई अपनी बीमार माँ को रिक्शा पर लेकर आया था ।वह कहने लगा, ''डॉक्टर साहिब, मेरी माँ दमे की पुरानी मरीज है । अबसे पहले हम डॉक्टर सन्तलाल के पास जाते थे, वे ‚ग्लूकोज में चार-पाँच टीके लगाते हैं, आक्सीजन देते हैं तब कहीं जाकर दो दिन में ठीक होती है । अबकी बार हमने सोचा, पड़ोसी डॉक्टर को दिखा लेते हैं । आप जल्दी ‚ग्लूकोज लगाएं बहुत तकलीफ में है ।''

मैंने अन्दर जाकर उसकी माँ की जाँच की तो पाया कि वह सचमुच दमे की मरीज है । एक बार तो रम बाबा की बात याद कर सोचा‚ ग्लूकोज तथा आक्सीजन लगा ही दूँ। मन दुविधा में था कि रम बाबा की बात मानूँ या न मानूँ । पर फिर मेरी आत्मा ने मुझे धिक्कारा और मैंने रमबाबा की बात न मानकर उससे भी ऊपर वाले 'बाबा' (भगवान) की बात मानकर, बुढिया को नेबुलाइजर से दवा दी, कुछ मिंटों में ही उसे आराम आ गया । उसे कुछ दवा व इन्हेलर लिखकर दिया और लेने का तरीका समझा दिया । बूढ़िया व रामकिशन हैरान थे ।

बुढ़िया के इतने जल्दी बिना ‚ग्लूकोज व टीके के आराम हो जाने से एक बार पूछा ''डॉक्टर साहिब दोबारा तो अटैक नहीं हो जाएगा ।''

मैंने कहा, 'नहीं'अब अगर तुम इन्हेलर लेती रही तो ऐसा अटैक नहीं पड़ेगा। बूढ़िया आशीष देती हुई चली गई। पता नहीं बूढिया की आशीष का असर था या रामकिसन द्वारा किये गये, अपनी माँ के ठीक होने के प्रचार का, रम-बाबा के नुस्खों के बिना ही मेरी प्रेक्टिस चल निकली थी ।

Thursday, April 14, 2011

फिर न चूड़ियाँ खनकेगी, न पायल छमकेगी-nazm

मौसम की पहली बारिश है और तुम नहीं हो
हवाओं में अजीब साजिश है और तुम नहीं हो

अब तुम्हारे बिना यह मौसम यह हवा क्या है

कोई मुझको कहे तो सही मेरी खता क्या है

मैंने दिलो जान से तुझे चाहा क्या इसकी सजा है
तेरे रूठने की दिलबर और कौनसी वजह है

तू सामने आए, तो तुझे मना लूंगी मैं
इन सन्दल सी बाहों का हार पहना दूंगी मैं

पर तू तो किसी और जुल्फ के खम कैद लगता है
हो गया किसी और बीमार का वैद लगता है

यह फितनागरी अच्छी नहीं है सनम
गैरों से दिलबरी अच्छी नहीं है सनम

जब लौटेगा तो देखना पछताएगा
यह सरू का बूटा ये नैनों के कंवल नहीं पाएगा

मैं रूठी हूँ, सनम तू मना ले मुझको
मैं तो तेरी हूँ, तू भी अपना ले मुझको

मैं तेरी आशनां हूँ, तू भी हाथ बढ़ा दे मुझको
सबक इश्क का, आज पहला पढ़ा दे मुझको

फिर न ये मौसम न ये हवा होगी सनम
बहारों की न फिर फिजां होगी सनम

वस्ल तो जीने का इक बहाना है सनम
इश्क दिल का दिल से मिल जाना है सनम

इश्क में रूह या बदन कहाँ होता है
हम सी लैलाओं में हुस्न कहाँ होता है

हुस्न तो तेरी नजर में समाया है
यही तो उरूजे इश्क का सरमाया ह

यह वक्त निकला तो फिर न आएगा
देखना हाथ मल-मल के तू पछताएगा

ये हुस्न ये जवानी कुछ दिन है यारब
तेरी मेरी ये कहानी कुछ दिन है यारब

फिर तो वक्त अपना ढंग दिखलाएगा
मौसम का भी रंग बदलता जाएगा

फिर न चूड़ियाँ खनकेगी, न पायल छमकेगी
स्याह जुल्फों में दूर से चाँदी चमकेगी

यह तव्वसुम, देखना वीरान हो जाएगा
यह जोबन, दो दिन का मेहमान हो जाएगा

फिर तो बैठेंगे गठिये की दर्द लिए
सुलगते होठों की जगह निगाहें सर्द लिए

आ बैठ कुछ देर मौसम का मजा लें हम
कुछ गुल अपने हँसी ख्वाबों में सजा लें हम

फिर तो यह मेला खुद-ब-खुद बिछुड़ जाएगा
यह दस्ते हिना, देखना इबादत में जुड़ जाएगा

यह मतवाला काजल भी तो बह जाएगा
या तो मैं अकेली या तू अकेला रह जाएगा



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Thursday, April 7, 2011

वक्त तो बिक गया सहूलियतों की तलाश में-- kavita

आत्म विश्लेषण
भला
लगता है
आंगन में बैठना
धूप सेंकना

पर
इसके लिए वक्त कहां?

वक्त
तो बिक गया
सहूलियतों की तलाश में

और अधिक 
संचय की आस में

बीत गए
बचपन
जवानी,
जीवन के 
अन्तिम दिनों में

हमने
वक्त की कीमत जानी

पर तब तक तो
खत्म हो चुकी थी नीलामी

हम जैसों ने
खरीदे जमीन के टुकड़े

इकट~ठा कियान धन
देख सके न
जरा आंख उठा

विस्तृत नभ
लपकती तड़ित
घनघोर बरसते घन
रहे पीते 
धुएं से भरी हवा

कभी नहीं
देखा
पास में बसा 
हरित वन

गमलों में
सजाए पत्नी ने कैक्टस
उन पर भी डाली 
उचटती सी नजर

खा गया हमें 
तो यारो
दावानल सा बढ़ता 
अपना नगर

नगर का भी
क्या दोष?
इसे भी तो हमने गढ़ा

देखते रहे
औरों के हाथ
बताते रहे भविष्य
पर अपनी
हथेली को कभी नहीं पढ़ा।




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Wednesday, March 23, 2011

काली- बहुत काली काजल सी काली--तस्वीर

चढ़े न दूजो रंग


मेरा
मन करता है
मैं
तुम्हारी
एक तस्वीर बनाऊँ
काली-
बहुत काली
काजल सी काली
सियाही से
कितनी
अद~भुत लगोगी तुम
तब
तुम्हारे चेहरे से
बदलते रंग
मेरे सिवा, कौन बूझ पाएगा
आर्ट गैलरी
के
तन्हा कोने में लगी
इस तस्वीर को
कोई नहीं देखेगा
केवल
मैं पढूंगा
तुम्हारे होठों पर
लपक आई-दुष्ट मुस्कान को
केवल मैं
सुनूंगा रातों में गूंजते
मूक राग को- अनूठी तान को
और बज उठेंगे
उसके साथ
मेरी
मन वीणा के तार
मैं रखूंगा
इस तस्वीर को सहेज संवार
बरसात में
और तस्वीरों के रंग जब
धुल जाएंगे
सूर की काली कमर सी
तुम्हारी तस्वीर से
तब फूटेगा
इन्द्र धनुष सा
सतरंगी दरिया
पर मैं-क्या करूं?
वह पवित्र काला रंग
कहां से लाऊँ
जो
तुमने
आंसुओं में काजल
घोलकर
बनाया था, मेरी खातिर
और मैं खड़ा रहा
काजल से सूनी आंखों का
अबोध
सौन्दर्य देखता
काजली रंग
जाने कहां बह गया
मैं
बस खड़ा रह गया।
1ण्10ण्1987


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Friday, March 18, 2011

कौन कहता है बुढापे में मुहब्ब्त का सिलसिला नहीं होता--

देखूं जो तुमको भांग  पीके
अबीर गुलाल लगें सब फ़ीके












मोतियाबिन्दी नयनो  में काजल
्नित करता मुझको है पागल










अदन्त मुंह और हंसी तुम्हारी
इसमे दिखता ब्रह्माण्ड है प्यारी










तेरा मेरी प्यार है जारी
 जलती हमसे दुनिया सारी




क्या समझें ये दुध-मुहें बच्चे
कैसे होते प्रेमी सच्चे







दिखे न आंख को कान सुने ना
हाथ उठे ना पांव चले ना





पर मन तुझ तक दौड़ा जाए
ईलू-इलू का राग सुनाए


हंसते क्यों हैं पोता-पोती
क्या बुढापे में न मुहब्ब्त होती



सुनलो तुम भी मेरे प्यारे
कहते थे इक चच्चा हमारे



कौन कहता है बुढापे में मुहब्ब्त का सिलसिला नहीं होता
आम भी तब तक मीठा नहीं होता जब तक पिलपिला नहीं होता






होली में तो गजल-हज्ल सब चलती है
                                                      
जलने दो गर दुनिया जलती है
ही तो होली की मस्ती है 




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Wednesday, March 16, 2011

मोतियाबिन्दी नयनो में काजल ---- होली गीत- holi hai

देखूं जो तुमको भांग  पीके
अबीर गुलाल लगें सब फ़ीके












मोतियाबिन्दी नयनो  में काजल
्नित करता मुझको है पागल










अदन्त मुंह और हंसी तुम्हारी
इसमे दिखता ब्रह्माण्ड है प्यारी










तेरा मेरी प्यार है जारी
 जलती हमसे दुनिया सारी




क्या समझें ये दुध-मुहें बच्चे
कैसे होते प्रेमी सच्चे







दिखे न आंख को कान सुने ना
हाथ उठे ना पांव चले ना





पर मन तुझ तक दौड़ा जाए
ईलू-इलू का राग सुनाए


हंसते क्यों हैं पोता-पोती
क्या बुढापे में न मुहब्ब्त होती



सुनलो तुम भी मेरे प्यारे
कहते थे इक चच्चा हमारे



कौन कहता है बुढापे में मुहब्ब्त का सिलसिला नहीं होता
आम भी तब तक मीठा नहीं होता जब तक पिलपिला नहीं होता






होली में तो गजल-हज्ल सब चलती है
                                                      
जलने दो गर दुनिया जलती है
ही तो होली की मस्ती है 



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और उसके जिस्म में सिक्के तलाशते लिजे-लिजे हाथों से-- कविता


मायें
क्यों जनती हैं
बेटियां
और फिर क्यों
रोकती हैं
उन्हें प्यार करने को
जबकि
उनकी
बूढी हडि~डयों में
सुलग रहा है
उनका कच्ची उ्म्र का प्यार
गीली लकड़ी की
मानिन्द
धुआंता-सा
और
उस धुएं से
उपजा मोतिया-बिंद
क्यों नहीं देखने देता
उन्हें अपनी बेटी की आत्मा
छटपटाहट
और उसकी टुकुर-टुकुर
देखती आंखें
जो तरस रही हैं देख पाने को
मां की
आंखों में
अपने लिए छुपी
सान्त्वना को
मां
क्यो नहीं सहेज लेती
बेटी के दर्द
को अपनी गोद में
जिससे बेटी
बच जाए
जमाने की
जिल्लत से
और उसके जिस्म में
दहेज के सिक्के
तलाशते
लिजे-लिजे हाथों से





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Friday, March 11, 2011

हक ओ हकूक की बात

मैं
जब भी
हक ओ हकूक
की बात करता हूं
मैं
जब भी
इन्सां के वजूद की
बात करता हूं
तो
लोग
लाठियां लेकर
मारने दौड़े चले आते हैं
चिल्लाते हैं
कि
इस पर
मसीहा उतर आया है
फिर
किसी इन्सान पर
बुद्ध, ईसा या माक्र्स
बनने का
भूत समाया है
मानो
ये सब
लक्कड़बग्घे थे
जो
बच्चों को
उठा ले जाते थे
पहले जब ऐसी बातों
पर
सर फुटौवल होता था
तो दोस्त
समझाते थे
कि
पगले
ऐसी बातें मत किया
और को जीने दे
और खुद भी जिया कर
पर मैं
उनकी बातें पचा नहीं पाता था
अब जब भी
हको हकूक
या इन्सा के वजूद की
बात पर
पिट-पिटा कर
घर लौटता हूं
तो
पत्नी आंचल से
मेरा
लहू पौंछती है
घी
हल्दी से
शरीर की चोट सेकती है
कातर
निरीह
आंखों से मेरे दिल में
झांकती है,
उसकी इन
नजरों से
मैं कमजोर पड़ जाता हूं
मेरी
रूह आंन्धी में
दीए की मानिन्द कांपती है
मैं सोचता हूं
कि अब तक
जो ख्वाब बुने थे
इन्सानियत के
सारे के सारे तोड़ दूं
पर
तभी सामने आ खड़ी होती है
बसु
माने
छोटी सी
प्यारी सी
बेटी
मेरी बेटी बसुदा
साफ
पाक आंखों से झांकती
मानो मेरी
कमजोरी को भांपती
जैसे
पूछती हो
पापा फिर कौन लड़ेगा?
उन लोगों ने
जिन्होंने खरीद लिया है
दाखिले
इंजिनयरिंग
और मेडिकल कालेजों के
जिन्होंने
मिलकर बांट ली है
सारी
नौकरियां
जाति धर्म
और भाई भतीजावाद
का नारा लगाकर
विश्वमुद्राकोष और पूंजीवादियों के हाथों
छीन रहे हैं
दस्तकारों के जीने का हक
मैं लड़खड़ाता सा
पत्नी के
कान्धे का सहारा लेकर
खड़ा होता हूं
और
अपनी कमजोरी की लाश
पर
खड़ा होकर चिल्लाता हूं
इंकलाब
जिन्दाबाद।
और
एक बार फिर
तैयार हो जाता हूं
ह्को-हकूक की
लड़ाई लड़ने के लिये



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Thursday, March 10, 2011

घर तेरा है या है मेरा-----gazal महिला दिवस पर विशेष

कहने को हम दुनिया आधी
फ़िर भी हैं मर्दों की बांदी

गहने जेवर की सूरत में
बेड़ी ही हमको पहना दी

बिट्या रानी घर की शोभा
कहकर कीमत खूब चुका दी

डोली उठी पिता के घर से
पी के घर में चिता सजा दी

घर की साज-संवार करें हम
इतनी सी बस है आजादी
जन्म दिया आदम को हमने
जनम-जनम की हम अपराधी

बात बड़ी है सीधी सादी
औरत होना है बरबादी

घर तेरा है या है मेरा
असली बात यही बुनियादी

आधा हक ले के है रहना
बात आज तुम्हें यूं समझादी

अनाम को-‘बेरदीफ़ मुस्लसल’गज़ल गज़ल
वज्न-फ़ेलुन,फ़ेलुन,फ़ेलुन,फ़ेलुन-काफ़िया ‘ई




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Sunday, March 6, 2011

कर तूफानों से प्यार--kavita

प्रश्न उठा
???????
दुख का सागर
है अपार  
कठिन है  
पाना इसका पार

समाधान गुना  










छोड़
कश्ती को मझधार

अपना ले  
लहरों को
कर
तूफानों से प्यार

Tuesday, March 1, 2011

कानों का रिश्ता----- कविता

बहुत
दिन हुए
मैं अपने कान
तुम्हारे पास रख आया था,
वे कान
तुम्हारे दिल की धड़कन
के साथ
मेरा नाम
सुनने के आदी हो गए थे,
धड़कर
के साथ
मेरा नाम सुन सुनकर
मुझे पैगाम भेजते
और
मैं इसलिए
तुमसे
दूर रहकर भी
मर नहीं पाया था
इधर कुछ दिनों से
मेरे कानों ने
पैगाम भेजने बंद कर दिए थे,
मुझे अपने
कानों से ज्यादा
तुम्हारी
धड़कन पर भरोसा था,
इसलिए
मैं जिन्दा रहा।
एक दिन,
तुम्हारे शहर से
मेरा
एक दोस्त
वापिस लौटा
वह
शहर में
काम ढूंढने गया था
पर
आजकल शहर में
काम नहीं बंटता,
वहां के
सपने झूठे हैं
काम तो ठेकेदारों के पास है
और
वह उन्हें बन्धुओ मजदूरों
से करवाते हैं
मेरा
दोस्त आजाद तबियत का
शख्स था,
वह
बन्धुआ मजदूर नहीं बन सका
उसने
कूड़ा बीनना शुरू कर दिया
एक दिन
उसने
तुम्हारे घर के
बाहर रखे कूड़ेदान में
हाथ डाला
तो
उसके हाथ लगे
वह
उन्हें पहचानता था
उसने भी
तुम्हारी तरह
इन कानों से
बहुत बातें की थी
और जब मैं
कान तुम्हें दे आया था,
तो वह मुझसे बहुत
नाराज
हुआ था
वह उसी दिन
गांव वापिस आ गया
उसने
कान मुझे
लौटा दिए
मैंने
कानों से लाख पूछा
पर
उन्होंने कोई जबाव नहीं दिया
मैं कानों को
डाक्टर के पास ले गया
डाक्टर ने
कई तरह से उलट-पुलट कर
आले लगा कर
उन्हें देखा
पर उसे
कुछ समझ नहीं आया
मैं
बहुत घबरा गया था।
कानों से ज्यादा
मुझे तुम्हारी फिक्र थी
तुम्हारी धड़कन
जो इन
कानों के बिना
धड़कना
बन्द करने की धमकी देती थी
उस धड़कन
की फिक्र थी
मैं गांव के ओझा के
पास गया
उसने मंत्र फूंका
कान
बोलने लगे
तुम्हारी
धड़कन मुझे
साफ सुन रही थी
वही की वही थी
पर
इस धड़कन में तो
बहुत से नाम थे,
और
उन नामों में मेरा नाम
नहीं था
अब
कान मेंरे लिए
बेकार थे
मैं उन्हें
ओझा के पास छोड़ आया
मेरा
जीवन भी मेरे लिए बेकार था
इसलिए
मैं
मर गया
मेरी रूह अब भी
ओझा के
घर के
चक्कर काटती है
और
कानों से
तुम्हारी धड़कन और मेरा नाम
सुनना
चाहती है
मैं क्या करूं।

11 pm रात्रि 



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Thursday, February 24, 2011

माँ क्या सचमुच बराबर की माँ है ?

माँ
क्या
सचमुच
बराबर की माँ है
बेटे की
बेटी की
अगर हाँ
तो
क्यों
मनाती है वह
बेटे के पैदा होने  का जश्न ?













और
क्यों होती है
 शामिल
बेटी के
पैदा होने के
मातम में ?
    
                                                                       क्यों  ???


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Tuesday, January 4, 2011

कहो कि जीना है-

2--
कहो कि जीना है
कहो
कि जीना है
माना
तुम्हारा मरना
बहुत कम को खलेगा

पर इससे
घर का खर्च तो बढ़ेगा
क्या
नहीं नौ मन लकड़ी से
दो महीने चूल्हा जलेगा?

कफ+न
से दो कमीज सिलेंगे
स्कूल की ड्रेस के
झीनी - सी
रजाई में तुम्हारे साथ सोने से
बच्चों
को सर्दी तो नहीं सताएगी

तुम
मर गए तो
भला पत्नी टिकुली कैसी लगाएगी?
पांच बच्चों
के अलावा
कभी कुछ दिया है उसको
जो
यह सांकेतिक सुख भी छीना है

कहो
कि जीना है

कबन्ध
हुए हो तो क्या डर है?
यहां कौन
तुमसे कद्दावर है?
किसके कन्धों पर
अब सर है?अब यहां
या तो
भुतहा सन्नाटा है
या फिर
हर-हर महादेव
अल्लाहो-अकबर है

रहो
इस दुनिया में
बहुत काला
गाढ़ा धुंआ फैला है
नीला अम्बर
हुआ मटमैला है
मत भागो
गंगा जल में घुला हलाहल
और किसी को
नहीं, तुम्हें ही पीना है

कहो
कि जीना है

माना
रोटी रोजी के लाले हैं
माना
लोगों ने आस्तीनों में सांप पाले हैं
पर
कुछ वे भी तो हैं,

जो
अपने हाथों पर आसमान संभाले हैं

तुम भी
तो कुछ कर दिखलाओ
सब को
मिलकर ही धरती का
फटा दिल सीना है

कहो कि
जीना है।








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