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Wednesday, December 2, 2009

याद की गलियों में

रिश्तों का बासीपन

रिश्तों का
बासी होना
बहुत अखरता है
मन
बार-बार टूटता है
बिखरता है
पर उसे
बचने का रास्ता
नहीं सूझता है
इसलिए बन्ध होकर
भी
रिश्तों से जूझता है
बार-बार
पुराने घर का
रास्ता पूछता है
याद की गलियों
में भटकता
जब वहां पहुंचता है
जहां कभी घर था
तो ठिठक जाता है
क्योंकि वहां भी
किसी अजनबी को
काबिज पाता है
लौटकर
समय के चौराहे पर आ जाता है।


30/8/1992
2.am00 रात्रि

आज यह गज़ल भी

दिल की बस इतनी खता है

http://gazalkbahane.blogspot.com/

3 comments:

  1. रिश्तों की बंद किताबों को कभी कभी नेह की धूप दिखा दें ...बासी नहीं रहेंगे ...!!

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  2. ओह!! बेहद करीब...भावपूर्ण!!

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  3. रहिमन धागा प्रेम का ---
    पुराने रिश्ते फटे हुए दूध की तरह होते है। कितनी कोशिश कर लें , पहले जैसा हो ही नही सकता।
    रचना वहुत सुंदर बन पड़ी है, श्याम साहब।

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