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Thursday, December 10, 2009

इन्तजार ?


रोज
दोपहर तक

नयन बैठे रहते हैं

बाहर

जंगले वाले
दरवाजे पर

डाकिये की
प्रतीक्षा में
उसके
साइकल की घंटी पर
मन
जा बैठता है
लैटर-बाक्स के भीतर

फिर
सड़क पर बैठे
ज्योतिषी के तोते सा

ढ़ूंढ़ता है

चिट्ठियों के ढेर में

तुम्हारी चिट्ठी

जिसकी आस में

अटकी है सांस

जो आई नहीं
अब तक
कब आयेगी ?




हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु
http://gazalkbahane.blogspot.com/

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