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Monday, June 22, 2009

हवा में टंगे लोग


हवा में टंगे लोग


सुना था
घर-घर होता है
जिसमें बैठा
सुख अक्सर होता है।

उम्र के पचपन वर्ष
काट दिये थे
किराये के कमरों में
सो सोचा
किसी तरह एक घर बनाया जाए।

ले-देकर
यानी भविष्य निधि से उधार
बैंक के होकर कर्जदार

हमने खरीदा
दो शयनकक्ष वाला फ्लैट
मगर यहाँ आकर
फिर हुआ सपना चकना चूर

क्योंकि
तो पाँव तले
जमीन थी ना सर पर छत

फ्लैट की छत थी
ऊपरवालों का फर्श
और हमारे पाँव थे टिके
किसी की छत पर

इस तरह हमें टंगे थे हवा में
मगर हवा भी कहाँ अपनी थी
खिड़कियों से
बेंध रही थी सामने वाले
ब्लॉक से बेशरम नजरें
इसलिये खिड़कियाँ परदों से ढँकनी थी

आँगन था
तुलसी
इस तरह फिर उम्र थी झुलसी

रात को ऊपर वाले नाचते-गाते हैं
अपने फर्श हमारी छत पर
धमाल मचाते हैं

हम इस शोर गुल से जगे हैं।
क्या नहीं सचमुच
हवा में टंगे हैं।

6 comments:

  1. गजब भाई, क्या कहें!!

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  2. बहुत सुन्दर सटीक अभिव्यक्ति है सच है कि सरकारी कर्म्चारी जीवन के सुनहरे पल सरकारी मकान मे गुजार देता है जब उसे अपना घर मिलता है तो उसका शरीर उसे संभालने के लायक नहीं रहता फिर भी ये छत किसी किसी को नसीब होती है जैसी भी है1 आपने आजकल की छतों का सच बाखूबि ब्यान किया है शायद वो अपनापन ऐसे घरों मे नही ं मिल सकता ब्डिया लिखा है आभार
    www.veerbahuti.blogspot.com

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  3. सटीक अभिव्यक्ति है.

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  4. बहुत ही सटीक .........सुन्दर
    उच्चे बिल्डींगस की मार और घर का रुप भी समय के साथ बदल रहा है .....अतिसुन्दर

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  5. आपकी पीडा हर फ्लेट में रहने वाला समझ सकता है...बहुत खूब लिखा है...
    नीरज

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  6. इसी लिये हमे यह फ़लेट पसंद नही,
    कविता बहुत सुंदर कही आप ने.
    धन्यवाद

    मुझे शिकायत है
    पराया देश
    छोटी छोटी बातें
    नन्हे मुन्हे

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