हवा में टंगे लोग
सुना था
घर-घर होता है
जिसमें बैठा
सुख अक्सर होता है।
उम्र के पचपन वर्ष
काट दिये थे
किराये के कमरों में
सो सोचा
किसी तरह एक घर बनाया जाए।
ले-देकर
यानी भविष्य निधि से उधार
बैंक के होकर कर्जदार
हमने खरीदा
दो शयनकक्ष वाला फ्लैट
मगर यहाँ आकर
फिर हुआ सपना चकना चूर
क्योंकि
न तो पाँव तले
जमीन थी ना सर पर छत
फ्लैट की छत थी
ऊपरवालों का फर्श
और हमारे पाँव थे टिके
किसी की छत पर
इस तरह हमें टंगे थे हवा में
मगर हवा भी कहाँ अपनी थी
खिड़कियों से
बेंध रही थी सामने वाले
ब्लॉक से बेशरम नजरें
इसलिये खिड़कियाँ परदों से ढँकनी थी
न आँगन था
न तुलसी
इस तरह फिर उम्र थी झुलसी
रात को ऊपर वाले नाचते-गाते हैं
अपने फर्श व हमारी छत पर
धमाल मचाते हैं
हम इस शोर गुल से जगे हैं।
क्या नहीं सचमुच
हवा में टंगे हैं।
गजब भाई, क्या कहें!!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सटीक अभिव्यक्ति है सच है कि सरकारी कर्म्चारी जीवन के सुनहरे पल सरकारी मकान मे गुजार देता है जब उसे अपना घर मिलता है तो उसका शरीर उसे संभालने के लायक नहीं रहता फिर भी ये छत किसी किसी को नसीब होती है जैसी भी है1 आपने आजकल की छतों का सच बाखूबि ब्यान किया है शायद वो अपनापन ऐसे घरों मे नही ं मिल सकता ब्डिया लिखा है आभार
ReplyDeletewww.veerbahuti.blogspot.com
सटीक अभिव्यक्ति है.
ReplyDeleteबहुत ही सटीक .........सुन्दर
ReplyDeleteउच्चे बिल्डींगस की मार और घर का रुप भी समय के साथ बदल रहा है .....अतिसुन्दर
आपकी पीडा हर फ्लेट में रहने वाला समझ सकता है...बहुत खूब लिखा है...
ReplyDeleteनीरज
इसी लिये हमे यह फ़लेट पसंद नही,
ReplyDeleteकविता बहुत सुंदर कही आप ने.
धन्यवाद
मुझे शिकायत है
पराया देश
छोटी छोटी बातें
नन्हे मुन्हे