अहं
टूटता है
आदमी
किसी बोझ से नहीं
बल्कि इस
अहसास से
कि उसे
चाहने वाला नहीं रहा कोई
झुकता
है आदमी
किसी के आगे नहीं
बल्कि
इसलिये
कि उस का बेटा
उसकी पीठ पर चढ़्कर
ऊंचा उससे कहीं अधिक
ऊंचा हो जाये
डूबता
है आदमी
किसी नदी या झील मे नहीं
अपने ही किसी
कर्म की शर्म से
ढूंढता
है आदमी
जिन्दगी के
आखिरी पहर में
अपने पैरों के निशान
वापिस बचपन में
लौटने को
मरता
है आदमी
बन्दूक की
गोली से
या किसी बीमारी से नहीं
बल्कि
टूट गई आस से
खत्म हुए विश्वास से
सुनता
है आदमी
किसी सवाल को नहीं
सवाल से
निकले सवालिया जवाब़ को
चुनता
है आदमी
जाने अनजाने मे
आस-पास बिखरी
खुशियां नहीं
दूर से घसीट कर लाये ग़म
कहता
है आदमी
भाईचारे से नहीं
अहंकार से
स्वयं को
हम
!!!
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
सही बात है ,आदमी अपने कर्म-और शर्म से ही डूबता है .
ReplyDeleteबिल्कुल सही!
ReplyDeletenihal kar diya saheb...........jai ho
ReplyDeleteएक कविता भर में पूरा जीवन दर्शन सिखा दिया। बहुत खूब।
ReplyDeleteवाह !! एकदम सही....
ReplyDeleteपूरा जीवन दर्शन या कहें निचोड़ आपने सुन्दर शब्दों में समेट कर प्रस्तुत कर दिया...
बहुत ही सुन्दर रचना...आभार.
कविता के बहाने आपने जीवनदर्शन का आइना दिखा दिया।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
kya khoob likha hai........har shabd mein satya chupa hai.........jeevan ka saar kah diya.........lajawaab.
ReplyDeleteek baat aur
ReplyDeleteaaj pahli baar aapke blg par aayi hun aur bahut pasand aaya.
pahli baar hi aapse kuch mangna chahti hun...........aap apni yeh kavita agar mujhe mail kar sakein to aapki aabhari rahungi.
rosered8flower@gmail.com