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Friday, June 26, 2009

दो बूंद हौसला- कविता


सूरज
की पीठ पर
चढ़ने की तमन्ना
लेकर
जो शख्श था
कभी घर से निकला
कल वही
फ़टे हाल
मुझे फुटपाथ पर मिला
मगर
था उसे
जमीं की बेरहमी का गम
था
उसे चांद से गिला
बोला
भाई खत्म होने देंगे
हम यह सिलसिला
अभी
तो बाकी है
बाजुओं में
दो बूंद हौसला

14 comments:

  1. सुंदर कविता,
    आत्मविश्वास बढ़ाता है,
    धन्यवाद

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  2. housala kam nahi hogi ..........kawita bhi kuchh yahi kah rahi hai

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  3. बेहतरीन प्रस्‍तुति, आभार ।

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  4. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति

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  5. is hausle k liye vishesh badhaai !
    hausla hai toh ghosla hai

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  6. बहुत ही ्सुंदर जिन्दा दिल.
    धन्यवाद

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  7. बेहतरीन प्रस्‍तुति, धन्यवाद.

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  8. बहुत बढ़िया कविता है.
    हौसला बुलंद करने वाली कविता है.

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  9. ye do boond hausla hi to hain kamaal cheez...... ek anmol rachna ke liye badhai

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  10. इस सुन्दर हौसले के लिये बधाई.

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  11. साहित्य का असर समाज पर पड़ता है। बस हौसला बढ़ाने वाली ऐसी कविताएं पढ़ने को मिलती रहें, जिन्दगी खुद बखुद सुन्दर बन जाएगी।

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