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Sunday, March 15, 2009

न ही अपनी मर्जी से मर पाया मैं।

मां एक याद
मां
ने
बहुत सरल
बहुत प्यारी
बहुत भोली
मां ने
बचपन में
मुझे
एक गलत
आदत सिखा दी थी
कि सोने से पहले
एक बार
बीते दिन पर
नजर डालो और
सोचो कि तुमने
दिन भर
क्या किया
बुरा या भला
सार्थक
या
निरर्थक
मां तो चली गई
सुदूर
क्षितिज के पार
और बन गई
एक तारा नया
इधर
जब रात उतरती है
और नींद की
गोली खाकर
जब भी
मैं सोने लगता हूं
तो
अचानक
एक झटका सा लगता है
और
मैं सोचते बैठ जाता हूं
कि दिन भर मैंने
क्या किया?कि
आज के दिन
मैं कितनी बार मरा
कितनी बार जिया
फिर जिया
इसका हिसाब
बड़ा उलझन भरा है
मेरा वजूद जाने कितनी बार मरा है
यह दिन भी बेकार गया
मैंने देखे
मरीज बहुत
ठीक भी हुए कई
पर नहीं है
यह बात नई
इसी तरह तमाम जिन्दगी गई
जो भी था मन में
जिसे भी माना
मैंने सार्थक
तमाम उम्र भर
वह आज भी नहीं कर पाया मैं
न तो कभी
अपनी मर्जी से जिया
न ही
अपनी मर्जी से मर पाया मैं।

10 comments:

  1. na apni marji se jiya, na apni marji se mara.

    bahut khoob sunder rachna

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  2. अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम थे

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  3. बहुत सुन्दर रचना. शुभकामनायें.

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  4. आप तो सचमुच साहित्‍य के सखा हैं। भविष्‍य की शुभकामनाओं के साथ बधाई।

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  5. हृदय के तारों को छुने वाली रचना। बहुत खूब। कहते हैं कि-

    कहानी मेरी रूदादे जहां मालूम होती है।
    जो सुनता है, उसीकी दास्तां मालूम होती है।।

    सादर
    श्यामल सुमन
    09955373288
    मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
    कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
    www.manoramsuman.blogspot.com

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  6. aadmi sone se pahale din par chintan manan kar le to bat ban jaye, narayan narayan

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  7. मित्रो ! आप सभी का आभार रचना अपनाने के लिये। प्रोत्साहन सदा उर्जावान होता है ।
    श्याम सखा

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  8. dr sahab apne to sahitya walo ko mat de di.sabke sakha syam ji ko mera naman.

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