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Thursday, March 5, 2009

गद्दी की पसंद- कूल्हें नरम और जेब गर्म


सिरफिरे और सलीब

सिरफिरों ने जब भी चुना है,
सलीब को चुना है,
किसी सिरफिरे ने हथिया ली गद्दी,
आपने सुना, गलत सुना है।

गद्दी की पहचान,
उसे कहाँ,
जिसका सिर फिरा हो,
गद्दी को वो क्या जाने,
जो रोटी-रोजी के मसले से जुड़ा हो।
गद्दी भी,
पसंद करती है उन्हें,
जिनके कूल्हे नरम और जेब गर्म हो,
गद्दी को कब भाए हैं वो,
जो केवल हाड़ हों, चर्म हों।
गद्दी को,
कब पसंद आई हैं
झुकी हुई बोझल निगाहें,
गद्दी को चाहिएं,
वो नजरें जो बेशर्म हों।

यह आज की बात नहीं,
ये तो सदियों का सिलसिला है,
सोने की छड़ से क्या
गरीब का चूल्हा जला है।

ये सवाल सतही नहीं,
मेरे हुजूर दिल का है,
खनखनाते बलूरी ग्लासों का नहीं,
बनिए के बेहिसाब बढ़ते बिल का है।

हमेशा घाटे का पाया है,
गरीब का बजट,
मैंने तुमने चाहे जिसने गुना है,
सिरफिरों ने जब भी चुना है,
सलीब को चुना है।

2 comments:

  1. यह आज की बात नहीं,
    ये तो सदियों का सिलसिला है,
    सोने की छड़ से क्या
    गरीब का चूल्हा जला है।

    बहुत अच्‍छा, बेहद खूबसूरत क्‍या कहने कविता अपने आप बयां करती है

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  2. सिरफिरों ने जब भी चुना है,
    सलीब को चुना है।

    Sundar baat....

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