हाँ
कला,संस्कृति
कल्चर के
नाम पर
हमारे पास थे
सिर्फ़
हल बैल
धरती फ़ावड़े
कुदाल बीज खरपतवार
इसीलिये
आप कहते हैं
हमारे पास
कल्चर के नाम पर
है सिर्फ़ एग्रीकल्चर
हम इन
तथ्यों को
जो आप बार-बार
गाली की तरह
फ़ेंक देते हैं
हमारी निरीह पसीने
में गंधाती देहों पर
हाँ
हम इन
तथ्यों को
नहीं नकारते
पर एक सवाल
बकौल आपकेहमारे कुंद जहन में
यह सवाल
बवंडर सा उठता है
अगर आप
कृपा करें
तो हम पूछ लें
आपसे श्रीमान् !
कुरूक्षेत्र को झेला हमने
अठारह अक्षोहणि
सेनाओं का रक्त
बहता है
हमारी अनकल्चर्ड धमनियों में
आज भी
गूंजता हैं मराठों,तुर्को,सिखों
राजपूतो की खड्ग तलवारों की
झनझनाहट
का शोर
पानीपत की धरती पर
तैरती गर्म हवाओं में
अनेक
वीरों
के साथ दफ़न हैं
अनेकानेक
निरीह काश्तकारों के शव
हम खेत
होते रहे
हमेशा-हमेशा से
कभी इन्द्र-प्रस्थ
कभी दिल्ली को
बचाने की खातिर
और चलाते रहे हल कुदाल
फ़ावड़े
जिससे भरे पेट
आप श्रीमान का
और ले सकें
आप आनन्द
ठुमरी गजल
या ध्रुपद का
शायद
आप भी एक शास्वत सच
जानते हैं
भूखे भजन न होहिं गोपाला
कभी पढें
आप हमें भी
और जब पढें
तो दिल से पढें
हमारे दुख
हमारी पीड़ा
और सुने हमारी
छाती से उठते उन्मुक्त ठहाके
उन ठहाकों से ही
तो निकलते हैं
ध्रुपद-और ठुमरी
हम हैं हरियाणा के
स्वाभिमानी
किसान
हम जमीन से जुड़े हैं
अक्खड़ नहीं हैं हम
हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु
http://gazalkbahane.blogspot.com/
!!!
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बहुत सटीक अभिव्यक्ति!
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