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Wednesday, March 23, 2011

काली- बहुत काली काजल सी काली--तस्वीर

चढ़े न दूजो रंग


मेरा
मन करता है
मैं
तुम्हारी
एक तस्वीर बनाऊँ
काली-
बहुत काली
काजल सी काली
सियाही से
कितनी
अद~भुत लगोगी तुम
तब
तुम्हारे चेहरे से
बदलते रंग
मेरे सिवा, कौन बूझ पाएगा
आर्ट गैलरी
के
तन्हा कोने में लगी
इस तस्वीर को
कोई नहीं देखेगा
केवल
मैं पढूंगा
तुम्हारे होठों पर
लपक आई-दुष्ट मुस्कान को
केवल मैं
सुनूंगा रातों में गूंजते
मूक राग को- अनूठी तान को
और बज उठेंगे
उसके साथ
मेरी
मन वीणा के तार
मैं रखूंगा
इस तस्वीर को सहेज संवार
बरसात में
और तस्वीरों के रंग जब
धुल जाएंगे
सूर की काली कमर सी
तुम्हारी तस्वीर से
तब फूटेगा
इन्द्र धनुष सा
सतरंगी दरिया
पर मैं-क्या करूं?
वह पवित्र काला रंग
कहां से लाऊँ
जो
तुमने
आंसुओं में काजल
घोलकर
बनाया था, मेरी खातिर
और मैं खड़ा रहा
काजल से सूनी आंखों का
अबोध
सौन्दर्य देखता
काजली रंग
जाने कहां बह गया
मैं
बस खड़ा रह गया।
1ण्10ण्1987


हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु http://gazalkbahane.blogspot.com/

3 comments:

  1. बेहतरीन भावपूर्ण रचना के लिए बधाई।

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  2. आभार वर्षा जी-
    भाव पूर्ण रचनाओं को समझ पाने वाले बहुत कम लोग रह गये हैं इस बाजार वाद के युग में-

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  3. मुझे गुरदास मान का गीत याद आ रहा है
    ये दुनिया मड़ी पैसे दी ,हर चीज़ बिकेंदी भा सजना
    एथे रोंदे चहरे नहीं बिकडे हसन दी आदत पा सजना
    और साथ ही अपनी ही दो पंक्तियाँ याद आ रही हैं ,आपने जो जवाब लिखा उस से :
    आंसुओं को ओस की बूंद कहने वालो,तुम क्या जानो
    रातें भी रोया करती हैं ,पेड़ों के गले लगकर
    प्रदीप नील www.neelsahib.blogspot.com

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