आत्म विश्लेषण
भला
लगता है
आंगन में बैठना
धूप सेंकना
पर
इसके लिए वक्त कहां?
वक्त
तो बिक गया
सहूलियतों की तलाश में
और अधिक
हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु http://gazalkbahane.blogspot.com/
भला
लगता है
आंगन में बैठना
धूप सेंकना
पर
इसके लिए वक्त कहां?
वक्त
तो बिक गया
सहूलियतों की तलाश में
और अधिक
संचय की आस में
बीत गए
बचपन
जवानी,
जीवन के
बीत गए
बचपन
जवानी,
जीवन के
अन्तिम दिनों में
हमने
वक्त की कीमत जानी
पर तब तक तो
खत्म हो चुकी थी नीलामी
हम जैसों ने
खरीदे जमीन के टुकड़े
इकट~ठा कियान धन
देख सके न
जरा आंख उठा
विस्तृत नभ
लपकती तड़ित
घनघोर बरसते घन
रहे पीते
हमने
वक्त की कीमत जानी
पर तब तक तो
खत्म हो चुकी थी नीलामी
हम जैसों ने
खरीदे जमीन के टुकड़े
इकट~ठा कियान धन
देख सके न
जरा आंख उठा
विस्तृत नभ
लपकती तड़ित
घनघोर बरसते घन
रहे पीते
धुएं से भरी हवा
कभी नहीं
देखा
पास में बसा
कभी नहीं
देखा
पास में बसा
हरित वन
गमलों में
सजाए पत्नी ने कैक्टस
उन पर भी डाली
गमलों में
सजाए पत्नी ने कैक्टस
उन पर भी डाली
उचटती सी नजर
खा गया हमें
खा गया हमें
तो यारो
दावानल सा बढ़ता
अपना नगर
नगर का भी
नगर का भी
क्या दोष?
इसे भी तो हमने गढ़ा
देखते रहे
औरों के हाथ
बताते रहे भविष्य
पर अपनी
हथेली को कभी नहीं पढ़ा।
इसे भी तो हमने गढ़ा
देखते रहे
औरों के हाथ
बताते रहे भविष्य
पर अपनी
हथेली को कभी नहीं पढ़ा।
हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु http://gazalkbahane.blogspot.com/
कविता बहुत अच्छी लगी ।
ReplyDeleteसच कहा --
जीवन के अन्तिम दिनों में
हमने
वक्त की कीमत जानी ।
सुधा भार्गव
और वक्त मिला भी तो सारे मामले को अभिव्यक्ित की आजादी समझकर कविताओं गजलों में उतारा, पर अपने में सुधार के लिये कुछ भी नही किया।
ReplyDelete-डॉ० श्याम सखा जी!
ReplyDeleteआपके ब्लाग पर आ कर खुशी हुई। अति सुन्दर.....आपकी रचना में स्वतंत्र चिंतन और मौलिकता निहित है।
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प्रवाहित रहे यह सतत भाव-धारा।
जिसे आपने इंटरनेट पर उतारा॥
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सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी