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Friday, April 27, 2012

बिन बुने ख्वाब aur सांसों में फंसा अंधेरा

 बिन बुने ख्वाब

मुझे
अभी
कुछ और कहना है
खुद से
पर कैसे कहूं
पर
बिना कहे कैसे रहूं
कहना तो
सरल है
अगर कोई सुनने वाला हो
कितना
बुरा लगता है
जब
ख्वाब हों
पर ख्वाब सुनने वाला ना हो।

27,12,1992

सांसों में फंसा अंधेरा

मैं अन्धेरों में
अन्धेरा ढूंढ रहा था
मगर
अन्धेरा तो मेरे
दिल में बसा था
अन्धेरा तो
मेरी सांसों में फंसा था
अन्धेरा तो
मेरे चारों ओर कसा था
वह
भला मुझे कहां मिलता।


27,12,94 ,12,05am

संवरण

भीड़ में
खड़े होकर
महसूसना
अकेलापन
बरबादियों के
ढेर पर
बैठकर
खिलखिलाना
दुध मुहें
बच्चों की मानिद
इन्हीं
अटपटे तरीकों से
‘श्याम’ कर लेता है
गम अपना बौना।

22 अक्तूबर 1993  भोर वेला



हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु http://gazalkbahane.blogspot.com/

2 comments:

  1. "कितना
    बुरा लगता है
    जब
    ख्वाब हों
    पर ख्वाब सुनने वाला ना हो।"

    सच इस कसक को शब्दों में बयान करना संभव नहीं ! वह टोह...मन का उन्मन रहना....वर्णनातीत अहसास ~

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