!!!

Wednesday, March 23, 2011

काली- बहुत काली काजल सी काली--तस्वीर

चढ़े न दूजो रंग


मेरा
मन करता है
मैं
तुम्हारी
एक तस्वीर बनाऊँ
काली-
बहुत काली
काजल सी काली
सियाही से
कितनी
अद~भुत लगोगी तुम
तब
तुम्हारे चेहरे से
बदलते रंग
मेरे सिवा, कौन बूझ पाएगा
आर्ट गैलरी
के
तन्हा कोने में लगी
इस तस्वीर को
कोई नहीं देखेगा
केवल
मैं पढूंगा
तुम्हारे होठों पर
लपक आई-दुष्ट मुस्कान को
केवल मैं
सुनूंगा रातों में गूंजते
मूक राग को- अनूठी तान को
और बज उठेंगे
उसके साथ
मेरी
मन वीणा के तार
मैं रखूंगा
इस तस्वीर को सहेज संवार
बरसात में
और तस्वीरों के रंग जब
धुल जाएंगे
सूर की काली कमर सी
तुम्हारी तस्वीर से
तब फूटेगा
इन्द्र धनुष सा
सतरंगी दरिया
पर मैं-क्या करूं?
वह पवित्र काला रंग
कहां से लाऊँ
जो
तुमने
आंसुओं में काजल
घोलकर
बनाया था, मेरी खातिर
और मैं खड़ा रहा
काजल से सूनी आंखों का
अबोध
सौन्दर्य देखता
काजली रंग
जाने कहां बह गया
मैं
बस खड़ा रह गया।
1ण्10ण्1987


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Friday, March 18, 2011

कौन कहता है बुढापे में मुहब्ब्त का सिलसिला नहीं होता--

देखूं जो तुमको भांग  पीके
अबीर गुलाल लगें सब फ़ीके












मोतियाबिन्दी नयनो  में काजल
्नित करता मुझको है पागल










अदन्त मुंह और हंसी तुम्हारी
इसमे दिखता ब्रह्माण्ड है प्यारी










तेरा मेरी प्यार है जारी
 जलती हमसे दुनिया सारी




क्या समझें ये दुध-मुहें बच्चे
कैसे होते प्रेमी सच्चे







दिखे न आंख को कान सुने ना
हाथ उठे ना पांव चले ना





पर मन तुझ तक दौड़ा जाए
ईलू-इलू का राग सुनाए


हंसते क्यों हैं पोता-पोती
क्या बुढापे में न मुहब्ब्त होती



सुनलो तुम भी मेरे प्यारे
कहते थे इक चच्चा हमारे



कौन कहता है बुढापे में मुहब्ब्त का सिलसिला नहीं होता
आम भी तब तक मीठा नहीं होता जब तक पिलपिला नहीं होता






होली में तो गजल-हज्ल सब चलती है
                                                      
जलने दो गर दुनिया जलती है
ही तो होली की मस्ती है 




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Wednesday, March 16, 2011

मोतियाबिन्दी नयनो में काजल ---- होली गीत- holi hai

देखूं जो तुमको भांग  पीके
अबीर गुलाल लगें सब फ़ीके












मोतियाबिन्दी नयनो  में काजल
्नित करता मुझको है पागल










अदन्त मुंह और हंसी तुम्हारी
इसमे दिखता ब्रह्माण्ड है प्यारी










तेरा मेरी प्यार है जारी
 जलती हमसे दुनिया सारी




क्या समझें ये दुध-मुहें बच्चे
कैसे होते प्रेमी सच्चे







दिखे न आंख को कान सुने ना
हाथ उठे ना पांव चले ना





पर मन तुझ तक दौड़ा जाए
ईलू-इलू का राग सुनाए


हंसते क्यों हैं पोता-पोती
क्या बुढापे में न मुहब्ब्त होती



सुनलो तुम भी मेरे प्यारे
कहते थे इक चच्चा हमारे



कौन कहता है बुढापे में मुहब्ब्त का सिलसिला नहीं होता
आम भी तब तक मीठा नहीं होता जब तक पिलपिला नहीं होता






होली में तो गजल-हज्ल सब चलती है
                                                      
जलने दो गर दुनिया जलती है
ही तो होली की मस्ती है 



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और उसके जिस्म में सिक्के तलाशते लिजे-लिजे हाथों से-- कविता


मायें
क्यों जनती हैं
बेटियां
और फिर क्यों
रोकती हैं
उन्हें प्यार करने को
जबकि
उनकी
बूढी हडि~डयों में
सुलग रहा है
उनका कच्ची उ्म्र का प्यार
गीली लकड़ी की
मानिन्द
धुआंता-सा
और
उस धुएं से
उपजा मोतिया-बिंद
क्यों नहीं देखने देता
उन्हें अपनी बेटी की आत्मा
छटपटाहट
और उसकी टुकुर-टुकुर
देखती आंखें
जो तरस रही हैं देख पाने को
मां की
आंखों में
अपने लिए छुपी
सान्त्वना को
मां
क्यो नहीं सहेज लेती
बेटी के दर्द
को अपनी गोद में
जिससे बेटी
बच जाए
जमाने की
जिल्लत से
और उसके जिस्म में
दहेज के सिक्के
तलाशते
लिजे-लिजे हाथों से





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Friday, March 11, 2011

हक ओ हकूक की बात

मैं
जब भी
हक ओ हकूक
की बात करता हूं
मैं
जब भी
इन्सां के वजूद की
बात करता हूं
तो
लोग
लाठियां लेकर
मारने दौड़े चले आते हैं
चिल्लाते हैं
कि
इस पर
मसीहा उतर आया है
फिर
किसी इन्सान पर
बुद्ध, ईसा या माक्र्स
बनने का
भूत समाया है
मानो
ये सब
लक्कड़बग्घे थे
जो
बच्चों को
उठा ले जाते थे
पहले जब ऐसी बातों
पर
सर फुटौवल होता था
तो दोस्त
समझाते थे
कि
पगले
ऐसी बातें मत किया
और को जीने दे
और खुद भी जिया कर
पर मैं
उनकी बातें पचा नहीं पाता था
अब जब भी
हको हकूक
या इन्सा के वजूद की
बात पर
पिट-पिटा कर
घर लौटता हूं
तो
पत्नी आंचल से
मेरा
लहू पौंछती है
घी
हल्दी से
शरीर की चोट सेकती है
कातर
निरीह
आंखों से मेरे दिल में
झांकती है,
उसकी इन
नजरों से
मैं कमजोर पड़ जाता हूं
मेरी
रूह आंन्धी में
दीए की मानिन्द कांपती है
मैं सोचता हूं
कि अब तक
जो ख्वाब बुने थे
इन्सानियत के
सारे के सारे तोड़ दूं
पर
तभी सामने आ खड़ी होती है
बसु
माने
छोटी सी
प्यारी सी
बेटी
मेरी बेटी बसुदा
साफ
पाक आंखों से झांकती
मानो मेरी
कमजोरी को भांपती
जैसे
पूछती हो
पापा फिर कौन लड़ेगा?
उन लोगों ने
जिन्होंने खरीद लिया है
दाखिले
इंजिनयरिंग
और मेडिकल कालेजों के
जिन्होंने
मिलकर बांट ली है
सारी
नौकरियां
जाति धर्म
और भाई भतीजावाद
का नारा लगाकर
विश्वमुद्राकोष और पूंजीवादियों के हाथों
छीन रहे हैं
दस्तकारों के जीने का हक
मैं लड़खड़ाता सा
पत्नी के
कान्धे का सहारा लेकर
खड़ा होता हूं
और
अपनी कमजोरी की लाश
पर
खड़ा होकर चिल्लाता हूं
इंकलाब
जिन्दाबाद।
और
एक बार फिर
तैयार हो जाता हूं
ह्को-हकूक की
लड़ाई लड़ने के लिये



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Thursday, March 10, 2011

घर तेरा है या है मेरा-----gazal महिला दिवस पर विशेष

कहने को हम दुनिया आधी
फ़िर भी हैं मर्दों की बांदी

गहने जेवर की सूरत में
बेड़ी ही हमको पहना दी

बिट्या रानी घर की शोभा
कहकर कीमत खूब चुका दी

डोली उठी पिता के घर से
पी के घर में चिता सजा दी

घर की साज-संवार करें हम
इतनी सी बस है आजादी
जन्म दिया आदम को हमने
जनम-जनम की हम अपराधी

बात बड़ी है सीधी सादी
औरत होना है बरबादी

घर तेरा है या है मेरा
असली बात यही बुनियादी

आधा हक ले के है रहना
बात आज तुम्हें यूं समझादी

अनाम को-‘बेरदीफ़ मुस्लसल’गज़ल गज़ल
वज्न-फ़ेलुन,फ़ेलुन,फ़ेलुन,फ़ेलुन-काफ़िया ‘ई




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Sunday, March 6, 2011

कर तूफानों से प्यार--kavita

प्रश्न उठा
???????
दुख का सागर
है अपार  
कठिन है  
पाना इसका पार

समाधान गुना  










छोड़
कश्ती को मझधार

अपना ले  
लहरों को
कर
तूफानों से प्यार

Tuesday, March 1, 2011

कानों का रिश्ता----- कविता

बहुत
दिन हुए
मैं अपने कान
तुम्हारे पास रख आया था,
वे कान
तुम्हारे दिल की धड़कन
के साथ
मेरा नाम
सुनने के आदी हो गए थे,
धड़कर
के साथ
मेरा नाम सुन सुनकर
मुझे पैगाम भेजते
और
मैं इसलिए
तुमसे
दूर रहकर भी
मर नहीं पाया था
इधर कुछ दिनों से
मेरे कानों ने
पैगाम भेजने बंद कर दिए थे,
मुझे अपने
कानों से ज्यादा
तुम्हारी
धड़कन पर भरोसा था,
इसलिए
मैं जिन्दा रहा।
एक दिन,
तुम्हारे शहर से
मेरा
एक दोस्त
वापिस लौटा
वह
शहर में
काम ढूंढने गया था
पर
आजकल शहर में
काम नहीं बंटता,
वहां के
सपने झूठे हैं
काम तो ठेकेदारों के पास है
और
वह उन्हें बन्धुओ मजदूरों
से करवाते हैं
मेरा
दोस्त आजाद तबियत का
शख्स था,
वह
बन्धुआ मजदूर नहीं बन सका
उसने
कूड़ा बीनना शुरू कर दिया
एक दिन
उसने
तुम्हारे घर के
बाहर रखे कूड़ेदान में
हाथ डाला
तो
उसके हाथ लगे
वह
उन्हें पहचानता था
उसने भी
तुम्हारी तरह
इन कानों से
बहुत बातें की थी
और जब मैं
कान तुम्हें दे आया था,
तो वह मुझसे बहुत
नाराज
हुआ था
वह उसी दिन
गांव वापिस आ गया
उसने
कान मुझे
लौटा दिए
मैंने
कानों से लाख पूछा
पर
उन्होंने कोई जबाव नहीं दिया
मैं कानों को
डाक्टर के पास ले गया
डाक्टर ने
कई तरह से उलट-पुलट कर
आले लगा कर
उन्हें देखा
पर उसे
कुछ समझ नहीं आया
मैं
बहुत घबरा गया था।
कानों से ज्यादा
मुझे तुम्हारी फिक्र थी
तुम्हारी धड़कन
जो इन
कानों के बिना
धड़कना
बन्द करने की धमकी देती थी
उस धड़कन
की फिक्र थी
मैं गांव के ओझा के
पास गया
उसने मंत्र फूंका
कान
बोलने लगे
तुम्हारी
धड़कन मुझे
साफ सुन रही थी
वही की वही थी
पर
इस धड़कन में तो
बहुत से नाम थे,
और
उन नामों में मेरा नाम
नहीं था
अब
कान मेंरे लिए
बेकार थे
मैं उन्हें
ओझा के पास छोड़ आया
मेरा
जीवन भी मेरे लिए बेकार था
इसलिए
मैं
मर गया
मेरी रूह अब भी
ओझा के
घर के
चक्कर काटती है
और
कानों से
तुम्हारी धड़कन और मेरा नाम
सुनना
चाहती है
मैं क्या करूं।

11 pm रात्रि 



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