!!!

Saturday, December 26, 2009

औरत को समझने के लिये-?

1
औरत
रो लेती है
हर छोटे या
बड़े दु:ख पर
और फिर
पांव पसार कर
पीठ मोड़कर सो जाती है

जब कि
पुरुष
रोता नहीं छीजता है,
खीजता है
दांत पीसता है
छत निहारता है
पंखे की पंखुडिय़ां गिनता है
बस जागता रहता है
सारा दिन
सारी रात
बिना बात

औरत को
समझने के लिये
गज-भर का
कलेजा चाहिये
दिल नहीं
दिल की जगह
भी भेज़ा चाहिये


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मै भला कब सुधरने वाला हूँ



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Thursday, December 24, 2009

प्यार के पल गिन


रात
हो
या दिन
बस हर पल-छिन
कहता है
मन
गिन-गिन -गिन
प्यार
के
पल
गिन
-
गिन

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मै भला कब सुधरने वाला हूँ

Saturday, December 12, 2009

रकीबों से उधार


आदत
से मजबूर

मुझे
एक आदत
सी
हो गई है
दुख उठाने की
अपने गम
नहीं होते हैं



तो ले आता हूं
रकीबों से उधार।

2
आदतें
आदतें
पुरानी
हों
कि
नईं
कब
गईं



10ण्4ण्1992
11ण्43 रात्रि

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पुराना शे‘र नई बहर में--श्याम सखा

Thursday, December 10, 2009

इन्तजार ?


रोज
दोपहर तक

नयन बैठे रहते हैं

बाहर

जंगले वाले
दरवाजे पर

डाकिये की
प्रतीक्षा में
उसके
साइकल की घंटी पर
मन
जा बैठता है
लैटर-बाक्स के भीतर

फिर
सड़क पर बैठे
ज्योतिषी के तोते सा

ढ़ूंढ़ता है

चिट्ठियों के ढेर में

तुम्हारी चिट्ठी

जिसकी आस में

अटकी है सांस

जो आई नहीं
अब तक
कब आयेगी ?




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Sunday, December 6, 2009

्स्त्री-पुरूष और जंग

पुरुष
जंग लड़ता है
जंग जीतता है
जंग हारता है
औरतें
जंग लड़ती नहीं



सिर्फ जंग जीतती हैं।





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Wednesday, December 2, 2009

याद की गलियों में

रिश्तों का बासीपन

रिश्तों का
बासी होना
बहुत अखरता है
मन
बार-बार टूटता है
बिखरता है
पर उसे
बचने का रास्ता
नहीं सूझता है
इसलिए बन्ध होकर
भी
रिश्तों से जूझता है
बार-बार
पुराने घर का
रास्ता पूछता है
याद की गलियों
में भटकता
जब वहां पहुंचता है
जहां कभी घर था
तो ठिठक जाता है
क्योंकि वहां भी
किसी अजनबी को
काबिज पाता है
लौटकर
समय के चौराहे पर आ जाता है।


30/8/1992
2.am00 रात्रि

आज यह गज़ल भी

दिल की बस इतनी खता है

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Saturday, November 28, 2009

अन्धेरे हंसते थे खिलखिलाते थे पर


मेरा
और अन्धेरे
का
रिश्ता
बहुत पुराना है
शायद तब का

जब से
मैंने
खुद को पहचाना है

तब मैं
अन्धेरे से डरता था
और
उसे देखते ही

मुंह ढ़क कर
सो जाता था

फिर
अन्धेरा
मुझे

रास आने लगा था
क्योंकि
वह
मुझे तुम्हारे

पास लाने लगा था

तब मैं
अन्धेरा
खाता था

अन्धेरा पीता था

तब मैं अन्धेरे में
मरता था

अन्धेरे में जीता था

अन्धेरों में

छुप-छुप के

दिल के जख्म सीता था

अन्धेरा

तब पराया नहीं

मेरा सगा था

उस वक्त मैं
बरसों तक

अन्धेरे में जगा था

तब मेरे
सपने
अन्धेरे की उम्र के

बराबर होते थे

तब मैं और तुम

अन्धेरों में हंसते थे

और
अन्धेरों में रोते थे
फिर एक
दिन अन्धेरा
सचमुच
अन्धेरा हो गया
मेरे सपनों को

निगलने वाला सवेरा
हो गया
अब
मैं भटकता था
अन्धेरों से जूझता था

अन्धेरों से

रोशनी की बस्ती
का
रास्ता बूझता था

अन्धेरे हंसते थे

खिलखिलाते थे

पर
रास्ता नहीं बतलाते थे
मैं
ठोंकरें खाता
अपनी समझ पर पछताता

सम्बन्धों के

जंगल में

चक्र बनाता घूम रहा हूं

मुझे
अभी होश में आना है
अपनावजूद
अन्धेरों से चुराना है
अन्धेरों
से मेरा
रिश्ता बहुत पुराना है

शायद
तब का
जब से मैंने खुद को
पहचाना है।


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Thursday, November 26, 2009

कितना कमजोर है पुरुष

पुरुष
कितना
कमजोर है
कि उसे अपनी
ताकत का
प्रदर्शन करने
के लिए भी
लड़की की मदद
का नाटक
रचना पड़ता है
चाहे वह
रेड एण्ड व्हाइट का
मर्द हो
या हो
लक्स के जांघिये का


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Saturday, November 21, 2009

आंसुओं में तैरते ख्वाब


मैं
रात भर

अन्धेरों को सहेजता रहा


मैं
गमों की बस्ती से
खुशियों के नाम

खत भेजता रहा


पर कोई

जवाब नहीं आया


बरस
बीतते गए
आंखें
तरस गईं


पर

आंसुओं में तैरकर

कोई
ख्वाब नहीं आया।




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तेरा सलोना बदन-है --कि है ये राग यमन -गज़लhttp://gazalkbahane.blogspot.com/

Wednesday, November 18, 2009

मन तुलसी मीरा भया,मनवा हुआ कबीर-श्याम sakखा

१६

मन तुलसी मीरा भया,मनवा हुआ कबीर
द्रोपदी के श्याम-सखा,पूरो म्हारो चीर

११
मनवा जब समझे नहीं,प्रीत प्रेम का राग
संबंधों घोड़े चढ़े,तभी बैरी दिमाग
१२
मन की हारे हार है,सभी रहे समझाय
समझा,समझा सब थके,मनवा समझे नाय

१३
मन की लागी आग तो ,वो ही सके बुझाय
जिसके मन् में,दोस्तो , प्रीत अगन लग जाय
१४
प्रीतम के द्वारे खड़ा,मनवा हुआ अधीर
इतनी देर लगा रहे,क्या सौतन है सीर
१५
मन औरत ,मन मरद भी,मन बालक नादान
नाहक मन के व्याकरण,ढूंढ़े सकल जहान


१७
अँगरलियां जब मन करे,महक उठे तब गात
सहवास तो है दोस्तो,बस तन की सौगात
१८
मन की मन से जब हुई,थी यारो तकरार
टूट गये रिश्ते सभी,सब् बैठे लाचार
१९
मन की राह अनेक हैं, मन के नगर हजार
मन का चालक एक है,प्यार,प्यार बस प्यार
२०
मन के भीतर बैठकर, मन की सुन नादान
मन के भीतर ही लिखे,गीता और कुरान
२१
गीत गज़ल तो हैं ‘सखा’ शब्दों के अम्बार
ढाई आखर के लिए मन तरसा हर बार।





सलोना बदन-है --कि है ये राग यमन -गज़ल



इस सप्ताह मेरी एक नई गज़ल
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Monday, November 16, 2009

उलट-बांसी

-भाव कविता का शरीर होता है और छंद कविता की आत्मा
मित्रो आज बह्स में हम एक मु्द्दआ लेते है बहस भर के लिये।क्योंकि मेरा मानना है कि बहस अगर सार्थक हो तो मुद्दए सुलझजाते है।गीत गज़ल या कविता को समझने के लिये दो बातें सभी कहते हैं ।लोग कहते हैं कि भाव कविता की आत्मा है।अब आत्मा है तो शरीर क्या है।मेरा मानना है कि भाव कविता ही नहीं हर अभिव्यक्ति का शरीर है जब कि छंद कविता की आत्मा है।गीता में लिखा है कि शरीर चाहे कीड़े का हो हाथी का हो आदमी का हो सबमें एक सरीखी आत्मा वास करती है।और हम जानते हैं कि हम शरीरको देख सकते है आत्मा को नहीं ।तो इसे देखें
दिले नादां तुझे हुआ क्या है
आखिर इस दर्द की दवा क्या है
अब सभी कह देंगे कि यह जनाब गालिब का शे है
लेकिन अगर इसे यूं लिख दिया जाए तोऐ नादान दिल तुझको क्या हो गया है और तेरे इस दर्द की दवाई क्या है तो भी क्या आप इसे गालिब का शे कह पाएंगे।पिछले दिनो माइकल जैकसन का निधन हुआ ।उनका शव जनता के दर्शनार्थ रखा गया।टी.वी चैनल्स के उद्घोषक कह रहे थे कि माइकल का शव दर्शनार्थ रखा गया है।किसी ने यह नहीं कहा कि माइकल दर्शनार्थ रखा गया है या लेटा हुआ है।यानि आत्मा के निकलते ही या कह लें सांस के निकलते ही माइकल का शरीर माइकल रह कर मात्र शव रह गया। अब फ़िर से देखें
दिले नादां तुझे हुआ क्या है
आखिर इस दर्द की दुआ क्या है
हमने गालिब के शे से कुछ[छंद-बहर] निकाल दिया
तो यह बता नादान दिल तुझको क्या हो गया है और तेरे इस दर्द की दवाई क्या है---अब इसे कोई नादान ही गालिब का शे कहेगा।तो दोस्तोकविता चाहे गीत हो ,गज़ल हो,दोहा-चौपाई हो या मुक्त-छंद हो-छंद मुक्त नहीं कविता की अत्मा छंद ही होती है उसके बिना वह केवल गद्य का टुकड़ा या कविता का शव भर होता है।

वैसे अनेक लोग तो यही मानते हैं कि भाव आत्मा और छंद शरीर होता है।उनका तर्क है किकोई रचना पढने ,सुनने से पता लग जाता हैकि यह गीत-गज़ल या कविता क्या है अत: छंद कविता का शरीर भाव आत्मा हुए।
आप कहें क्या कहेंगे।


हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु
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Friday, November 13, 2009

लड़कियां वाकई खूबसूरत होती हैं-श्याम sakखा



खूबसूरत
लड़कियाँ
छोटी हों
जवान हों
बूढ़ी हों
खूबसूरत होती हैं
लड़कियाँ
वाकई में खूबसूरत होती हैं
क्योंकि
वे झट से
घुल-मिल जाती हैं
हर लड़की से
बॉंट लेती हैं
अपने और औरों
छोटे-छोटे
दुख-दर्द
या सुख
पनघट पर
ऑफ़िस के प्रसाधन कक्ष में
या चलती बस -ट्रेन में
एक अनजान सहयात्री
लड़की या महिला से
हऑ
हँस लेती हैं
बात पर
बिना बात भी
मगर पुरूष
कैद रहता है
अपनी तथा कथित
गम्भीरता में
लड़कियां
वाकई
खूबसूरत होती हैं
क्योंकि
लड़कियों से खूबसूरत
और कोई नहीं
होता ।

अच्छा-बुरा
लड़के
बुरे नहीं होते
वे तो
प्यार करते हैं लड़कियों से
लड़के बुरे
हो जाते हैं
जब वे
पा जाते हैं
पति होने का अधिकार।



मेरे कविता संग्रह औरत को समझने के लिये’ से
मेरी एक नई गज़ल

दीवाने की कब्र खुदी तो-गज़ल

यहां देख सकते है
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Monday, November 9, 2009

रसभरी ---(किशोर प्रेम की कोमलांगी कहानी)

इसी कहानी के दो अंश-
१-- [एक अजीब मिठास लिये रसभरियों का, कसैला स्वाद मुझे कभी नहीं भाया था। हाँ उन्हें देखना अलबत्ता मुझे अच्छा लगता था; उन्हें देख मुझे यूँ लगता था जैसे कोई गदराया बदन, कल्फ लगी मलमल की साड़ी से बाहर निकला जा रहा हो। मुझे रसभरी के झीने मुलायम कवच को छूना भी भला लगता था। उसके चिकने बदन पर हाथ फिराना मुझे एक अजीब किस्म का सुख देता था, जिसे शायद फ्रायड महाशय ही शब्द दे पाएँगे।]
२-हे राम ! रसभरी फ्रिज में, मेरा दिल बैठ गया। मैं भागा रसोई की और।
मुझे फ्रिज में रखे फल व मारचरी [शव] ग्रह में रखी लाश में, एक अदभुत साम्य का अहसास होता है। मुझे लगता है कि फ्रिज में जाकर फल-सब्जियां मर जाती हैं। उनमें अपना स्वाद, अपनी खूशबू न रहकर फ्रिज का ठण्डापन हावी हो जाता है। शायद यह मेरे देहात में बीते बचपन के कारण हो। वहां तो बस ताजा फल-सब्जियां खाने का रिवाज होता था। पर इधर कुछ बरसों से, काम की भरमार, जिम्मेदारियों के बोझ तथा पत्नी के अनुशासन के नीचे दबकर, मैं अपने आप को खो बैठा था।

रस-भरी- कहानी


बहुत दिनों बाद इस शहर में रसभरी बिकती देखी। मैं कार चला रहा था, पत्नी व बच्चे भी साथ थे किसी उत्सव में शामिल होने जा रहे थे। रसभरी खरीदने खाने की इच्छा थी परन्तु पत्नी ने साज-सिंगार मे इतनी देर कर दी थी कि अगर मैं गाड़ी रोकता तो और देर हो जाती, इसलिये चाहकर भी गाड़ी नहीं रोक सका।
हालाँकि तथा-कथित अभिजात्य वर्ग में शामिल होकर, मशीनी जिन्दगी जीते-जीते, मैं भी इन सब्जियों-फलों को जो अक्सर गाँव-देहात या कस्बों में मिलती है, का स्वाद लगभग भूल ही चुका था। फिर भी मन में दबी रसभरी दो दिन से मेरे पीछे लगी थी। मैं अस्पताल आते-जाते उसी सड़क से तीन बार गुजर चुका था और हर बार मेरी निगाहें उस रेहड़ी वाले को ढूंढ़ती रही थीं, फल-सब्जी की दुकान पर भी पता किया पर रसभरी नहीं मिलीं।
आज अचानक दोपहर को अस्पताल से एक सीरियस मरीज़ देखने का बुलावा आने पर मैं अस्पताल जा रहा था कि वो रसभरी की रेहड़ी ठेलता हुआ सामने से आता दिखा। मैंने गाड़ी रोकी तब तक वह काफी दूर निकल गया था। आज तो मेरा बचपना मुझ पर हावी था, मैंने उसकी और दौड़ते हुए आवाज दी 'ओ! रसभरी!'
उसके लगभग दौड़ते पाँव थम गये। मैं उसके पास पहुंचा ही था कि उसने तराजू तान दी बोला 'कितनी'?
मैने बिना सोचे कहा 'आधा-किलो।'
उसने तोलकर कागज के लिफाफे में डालकर मुझे पकड़ाते हुए कहा 'बाइस रुपये'। मैंने पचास का नोट दे दिया। वह गल्ले से पैसे निकाल रहा था तो मैने पूछा 'रसभरी और कहीं नहीं मिली शहर में तुम कहां से लाते हो' उसने पैसे वापिस करते हुए कहा 'दिल्ली से' और चलता बना जैसे उसे किसी की परवाह ही न हो। देखा तो वह रेहड़ी धकियाए काफी दूर जा चुका था।
अस्पताल से घर लौटने पर मरीज देखने के चक्कर में रसभरियों को भूल ही गया। रात सोने लगा तो अचानक याद आया तो मुहं से निकला 'अरे! मेरी गाड़ी में रसभरियां थी उनका क्या हुआ? पत्नी ने करवट बदलते हुए कहा 'नौकर ने निकालकर फ्रिज में रख दी होगी'।
हे राम ! रसभरी फ्रिज में, मेरा दिल बैठ गया। मैं भागा रसोई की और।
मुझे फ्रिज में रखे फल व मारचरी [शव] ग्रह में रखी लाश में, एक अदभुत साम्य का अहसास होता है। मुझे लगता है कि फ्रिज में जाकर फल-सब्जियां मर जाती हैं। उनमें अपना स्वाद, अपनी खूशबू न रहकर फ्रिज का ठण्डापन हावी हो जाता है। शायद यह मेरे देहात में बीते बचपन के कारण हो। वहां तो बस ताजा फल-सब्जियां खाने का रिवाज होता था। पर इधर कुछ बरसों से, काम की भरमार, जिम्मेदारियों के बोझ तथा पत्नी के अनुशासन के नीचे दबकर, मैं अपने आप को खो बैठा था।
पर आज रसभरी का फ्रिज में रखा जाना सुनकर मेरा दिल दहल गया था। क्या सचमुच रसभरी की लाश मिलेगी फ्रिज में? वितृष्णा सी होने लगी।
पर मैंने, भुलक्कड़ नौकर को धन्यवाद दिया, जब रसभरी का लिफाफा, रसोई की सिलपर रखा देखा।
लिफाफा उठाकर, वापिस बेडरूम में आ गया और लिफाफे से, निकालकर रसभरी मुँह में रखी। आ हा! क्या रस की फुहार फूटी मेरे मुँह में, अजीब सा मीठा खटास, ना नीम्बू, ना सन्तरा, ना आम, रसभरी का स्वाद, रसभरी खाये
बिना नहीं जाना जा सकता।
पत्नी ने मेरी और करवट लेकर कहा 'अरे! कम से कम, धो तो लेते।' अब उसे कौन समझाए कि ऐसे बाँगरू देहाती फलों को स्नान नहीं करवाया जाता? उनके ऊपर पड़ी धूल की परत का अपना स्वाद है, अपना आनन्द है।
मनुष्य की एक आदत बड़ी अजीब है। किसी को भूलता है तो ऐसे जैसे उसका कोई अस्तित्व ही नहीं था। याद करने पर आता है तो छोटी सी बात, छोटी सी घटना को उम्रभर कलेजे से लगाये-चिपकाए जीए चला जाता है।
रसभरी खाते-खाते मेरी एक पुरानी टीस जो यादों की सन्दूक में कहीं बहुत नीचे छुप-खो गई थी, उभर आई।
बचपन जिस कस्बे में बीता था, वह उस जमाने में फलों के बागों के लिए दूर-दूर तक प्रसिद्ध था। उस दिन से पहले मुझे रसभरी कभी अच्छी नहीं लगी थी जबकि घर-घर क्या कस्बे के अधिकांश लोग, रसभरियों के पीछे पागल थे और अनवर मियां के बाग की मोटी रसभरियां तो ऐसे बिकती थीं, जैसे कर्फ्यू के दिनों में दूध।
एक अजीब मिठास लिये रसभरियों का, कसैला स्वाद मुझे कभी नहीं भाया था। हाँ उन्हें देखना अलबत्ता मुझे अच्छा लगता था; उन्हें देख मुझे यूँ लगता था जैसे कोई गदराया बदन, कल्फ लगी मलमल की साड़ी से बाहर निकला जा रहा हो। मुझे रसभरी के झीने मुलायम कवच को छूना भी भला लगता था। उसके चिकने बदन पर हाथ फिराना मुझे एक अजीब किस्म का सुख देता था, जिसे शायद फ्रायड महाशय ही शब्द दे पाएँगे।
उस दिन चैम्बर वाली धर्मशाला के सामने वह रेहड़ीवाले से रसभरी तुलवा रही थी और साथ-साथ रसभरी छील-छीलकर खाती जा रही थी। उसने कल्फ लगा, कॉटन का सफेद स्कर्ट व सन्तरी रंग की टॉप पहन रखी थी, मुझे उसमें और रसभरी में एक अजीब समता लगी थी ।
वह मेरा पहला प्यार थी। इस बात का यह मतलब कतई नहीं है कि मैने बहुत से प्यार किये हैं। वह यानी 'मेरा पहला प्यार' हमारे घर से थोड़ी दूर पर रहती थी। आपने रेलवे रोड़ पर सचदेवा जनरल स्टोर तो देखा होगा, जिसका गोरा-चिट्टा मालिक, बालों को खिज़ाब से रंगकर, पत्थर की प्रतिमा सा, काउंटर पर बैठा रहता था। उसके चेहरे के स्थितप्रज्ञ भाव केवल किसी खास अमीर ग्राहक के आने पर ही बदलते थे। वरना वह एक आँख से दुकान के नौकरों व दूसरी से सड़क पर अपना अबोल हुक्म चलाता प्रतीत होता था।
उसकी दुकान सबसे साफ-सुथरी व व्यवस्थित दुकान थी, हर चीज इतने करीने रखी सजी होती थी, दुकान के नौकर भी वर्दी पहने होते थे, इन सब बातों के होते आम ग्राहक तो डर के मारे दुकान पर चढ़ते ही नहीं थे।
उसी सचदेवा जनरल स्टोर के सामने एक होटल था, जी हाँ, सारे शहर में यही एक होटल था उन दिनों,बाकी सारे वैष्णो ढाबे थे। इस होटल के बाहर जालीदार छींके में मुर्गी के झक-सफेद अंडे टंगे रहते थे और शीशे के दरवाजे के भीतर हरी गद्दियों वाली कुर्सीयां, लाल रंग के मेजपोशों वाली मेजों के साथ लगी दिखती थी। कुल मिलाकर हमें वह फिल्मों वाला नजारा लगता था। मुझे बहुत बाद मालूम हुआ कि वह होटल नहीं, रेस्तराँ था। पर तब वह शहर का एक मात्र होटल था जहाँ सामिष भोजन मिलता था।
वह इसी होटल के ऊपर रहती थी। मैं तब दसवीं कक्षा में पढ़ता था, नई-नई मसें भीगीं थी। मन में एक अजीब हलचल रहने लगी थी, जिन लड़कियों को मैं पहले घास भी नहीं डालता था अब उन्हें नजर चुराकर देखना मुझे अच्छा लगने लगा था। उन्हीं दिनों मैंने भाटिया वीर पुस्तक भँडार से किराये पर लेकर चन्द्रकान्ता व चंद दीगर जासूसी उपन्यास पढ़ डाले थे।
मुझे वह चंद्रकान्ता लगने लगी थी। उसकी चाल में एक अजीब मादकता थी, मैं उसकी एक झलक पाने के लिये बिना बात बाजार के चक्कर लगाने लगा था, तथा जब वह रसभरी खरीदकर, अपने चौबारे चढ़ जाती थी, तो मैं रेहड़ी से रसभरी लेने पहुँच जाता था। रसभरी अब मुझे सभी फलों से अच्छी लगने लगी थी। पर मुसीबत यह थी कि रसभरी साल में दो तीन महीने आती थी।
वह कौन सी कक्षा में पढ़ती थी? मुझे पता नहीं था, पर उसे रिक्शा में पढ़ने जाते देखना, मेरा रोज का काम हो गया था, हमारे मुहल्ले की इस उम्र की लड़कियों ने या तो पढ़ना छोड़ दिया था या उनका पढ़ना छुड़वा दिया गया था और वे घर-घुस्सू हो गई थीं। पर यह लड़की रिफ्यूजी याने पाकिस्तान से विस्थापित थी। और इन रिफ्यूजियों मे एक खास खुलापन था। वह रिकशा में ऐसे बैठती थी, जैसे कोई रानी रत्न-जड़ित रथ पर या कोई मेम विक्टोरिया में बैठी हो। सचदेवों का बड़ा लड़का सुरेन्द्र, मेरे साथ पढ़ता था, वह शाम को कभी-कभार अपनी दुकान पर बैठ जाता था, मैंने उसे अक्सर सुरेन्द्र से बातें करते देखा था, मैं उसका नाम भी नहीं जानता था, पर शर्म के मारे सुरेन्द्र से भी नहीं पूछ पाया था। वैसे भी सुरेन्द्र शोहदों की टोली में था और मैं किताबचियों की टोली में।
शायद अब उसे भी पता चल गया था कि मैं उसे देखता रहता हूँ। अब वह भी कभी-कभी पलट कर मुझे देखने लगी थी। एक दिन मैं, रेलवे-क्रासिंग बन्द होने के कारण, फाटक के बाजू में पैदल-यात्रियों हेतु बने चरखड़े से, साइकिल निकाल रहा था, कि वह भी दूसरी और से उसमें से निकलने लगी। हमारी नजरें मिलीं, एक पहचान पल-भर के लिये कौंधी। फिर वह, मेरे हाथ पर हाथ रख कर चरखड़े से निकल गई। मैं सुन्न खड़ा रह गया था, उस छुअन के अहसास से। अगर पी़छे आता राहगीर मुझे न धकियाता, तो शायद मैं उम्र-भर वहीं खड़ा रह जाता।
मैं वहाँ से चला तो गुनगुनाने लगा था 'हम उनके दामन को छूकर आये हैं,हमें फूलों से तोलिये साहिब'।
अनेकों बार सूंघा था मैंने अपने उस हाथ को। मैंने तो अपने उस हाथ को चूमना भी चाहा था, पर मैं यह सोचकर नहीं चूम सका कि वह यह जानकर नाराज न हो जाये। आज उन बचकानी बातों को सोचकर हँसी आती है।
हमारी नजरें मिलने का सिलसिला लगभग दो साल चला। वह सामने से आती दिखती तो मैं जान-बूझकर आहिस्ता चलने लगता कि उसे ज्यादा देर तक देख सकूं। वह भी मौका मिलते ही मुड़-मुड़कर मुझे देखती तथा किसी के आ जाने पर अपनी गर्दन को हल्का सा झटका देती जैसे अपनी जुल्फें सँभाल रही हो।
एक बार तो पीछे मुड़कर देखते हुए वह मुस्कराई भी थी। उस वक़्त उसकी साफ-शफ़्फ़ाक बिल्लोरी आँखों मे एक चमक थी, एक पहचान थी, एक राज़ था, एक साझेदारी थी और भी जाने क्या-क्या था, शायद प्यार भी था। मुझपर कई दिन, एक अजीब सा नशा छाया रहा। फिर मुझे मेडिकल ऐन्ट्रेंस टेस्ट देने पटियाला जाना पड़ा। तीन दिन बाद ही लौट पाया था।
ट्रेन रात को पहुँच। स्टेशन से मेरे घर का छोटा रास्ता दूसरा था पर मै उसके घर की तरफ से लौट रहा था । उसके घर में एक कमरे की बत्ती जल रही थी, मैं खड़ा हो गया। मैं वहीं खड़ा उस खिड़की को देखने लगा। बाजार के चौकीदार के टोकने पर ही घर गया था।
उस रात के बाद वह मुझे कभी दिखाई नहीं दी। वह घर भी बन्द रहने लगा। मैं जाने क्यों उदास रहने लगा। वक़्त मेरी उदासी से बेखबर अपनी रफ़्तार से चलता गया।
एक दिन मैंने देखा कि डाकिया उसके घर की सीढीयां चढ़ रहा था। फिर उसने एक खत उनके बरमदे में फेंक दिया और चलता बना। मैं शाम होने पर, सीढियों पर चढ़कर बरामदे में पहुँचा, वहाँ बेंत की दो टूटी कुर्सियां पड़ी थीं। पर खत शायद हवा उड़ा ले गई थी। एक कुर्सी पर एक छोटा सा चिथड़ा सा पड़ा था, उठाकर देखा तो वह एक जनाना रुमाल था। अनजाने में, मैं उसे सूंघ बैठा; मुझे उसमें वही गंध महसूस हुई, जो उसके छूने पर अपने हाथ मे आई थी।
हालांकि वह रुमाल किसी और का भी हो सकता था। पर तब मुझे यकीन था कि वह उसी का है। उस रुमाल पर लाल व हरे रंग का फूल काढ़ा हुआ था। मैंने उसे अपनी किताब ग्रे'ज अनाटमी में रख लिया था। अनाट्मी का कोर्स खत्म होने पर भी मैने वह किताब नहीं बेची, हालांकि कई बार मुझे पैसे की किल्लत भी हुई थी।
बरस पर बरस बीतते गये। यादों के आइने पर वक़्त की धूल की परत चढ़ गई और उसकी याद भी उसी की तरह खो गई थी। आज अगर रसभरी न खरीदता, खाता तो बचपन के मीठे कसैले, अतृप्त, असफल, अधूरे प्रेम की याद कैसे आती।


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Thursday, November 5, 2009

अब घर कहां ?

छ्त है
दीवारें हैं
अब घर कहां ?

घर के
बाशिन्दो के मन में
खड़ी दीवारें हैं
अब घर कहां ?

संवादो में
है मौन
शब्दों में खिचीं
तलवारें है
अब घर कहां ?



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यहां पर पढ़ें यह गज़ल-पहले देंगे जख़्म फिर....

Monday, November 2, 2009

बस तुम्ही निजात दिला सकती है--

मैं
असहाय
एवम्‌ निरीह

त्रिशंकु सा उल्टा लटका हूं
अंधेरे महा शून्य में
जब कभी
कोई धूमकेतु निकलता है
मेरे समीप से
तो मैं हाथ-पांव मारता हूं
उसे पकड़ने के लिये
पर संभव नहीं होता
यह हरबार की तरह
यह महा शून्य
और घना अंधियारा हो जाता है
साथ-साथ बर्फ़ीला भी
मैं प्रतीक्षा में हूं
तुम्हारी सांसों की गरमाहट महसूसने को
बस तुम्ही निजात दिला सकती है
मुझे इस महाशून्य से
कब आओगी तुम


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पहले देंगे जख्म और फिर--- गज़ल

Thursday, October 29, 2009

सूरज का गबन


दिल के
अंधेरे मिटाने
के लिये
हमने क्या-क्या
नहीं किया
रोशनियों के जलवे चुराये
सूरज का गबन किया
पर
पूनमी रात भी
उजला सकी
मेरी खिड़कियां
तभी एक पतंगा
जल मरा
सामने की झोपड़ी
के टिमटिमाते दीये की लौ पर
और
सारा जहां
रोशन हो गया




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Tuesday, October 27, 2009

चुपचाप भला कब रहती है पीड़ा- श्याम

अंग-अंग में
पीड़ा है,
कैसी
अद्‍भुत-अनहोनी पीड़ा है
पीड़ा का
संसार बसा है
पीड़ा का हर तार कसा है
मन फिर भी दुविधा में फंसा है
शिराओं में
धमनियों में बहती है पीड़ा
चुपचाप
भला कब रहती है पीड़ा
पर
पीड़ा की भाषा को समझे
ऐसा
साथी पाना तो कठिन है
पीड़ा का
साथी कौन - सगा कौन
पीड़ा
बड़बड़ाती है सन्निपात सी
सुख बैठा है मौन
पीड़ा
को समझेगा वह
जिसने पीड़ा को पाया है
यूं तो
बहुतेरे ने
पीड़ा का मीना बाजार सजाया है
रूक
जाओ यहीं
यहीं सुख है मस्ती है
मत
बढ़ो आगे
आगे तो पीड़ा की बस्ती है
पर
मैंने पीड़ा का स्वर पहचाना है
सदा
ही मैंने पीड़ा को अपना माना है
मैं पीड़ा को छोड़ भी दूं
पर नहीं पीड़ा मुझको त्यागेगी
चल दूंगा जिधर
वह मेरे
पीछे-पीछे भागेगी।



2-- एक टुकड़ा दर्द-कविता संग्रह से
18ण्3ण्1993
11ण्30 रात्रि




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Monday, October 19, 2009

रोशनी की आवाज--श्याम सखा

मैं
सुनसान अन्धेरों
के जंगल में
भटक रहा था
कि तेरी आवाज
रोशनी बनकर आई
और मेरा हाथ पकड़ कर
चलने लगी
बूढ़े वक्त को
आवाज का ऐसा
करना
बेहयाई लगा
उसने
आवाजू को गूंगा कर दिया
और
मेरे रास्तों को
फिर अन्धेरों से भर दिया
तब से
अब तक
मैं सुनसान अन्धेरों के
जंगल में
तेरी आवाज को
आवाज देता हूं
और फिर
खाली हाथ
वापिस लौटी
आपनी आवाज को सुनता हूं
अन्धेरों में स्वयं को
टटोलता हूं
सिर धुनता हूं।


दिसंबर 25 रात्रि 11ण्30



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Thursday, October 15, 2009

एक टिप्पणी-हाय टिप्पणी


बहुत सुन्दर, बहुत अच्छे, भईई वाह टिपणी कर
बुरे अच्छे की मत कर यार तू परवाह टिपणी कर

बहर पर हो हो कोई गज़ल तो भी तू कुछ सोच
दिखे चाहे कोई भाव या अल्लाह टिपणी कर

हमें भी तो सिखा दें आप लिखना ये गज़ल साहिब
रहें कहते सुन कुछ और दे इस्लाह टिपणी कर

मानेगा तू तो पछताएगा इक दिन बहुत ज्यादा
तुझे दोस्त करता हूं मैं आज आगाह टिपणी कर



अगर जो तू कहीं लग जाएगा उनको सिखाने तो
सभी नाराज होंगे तू कहेगा आह, टिपणी कर

रकीबों से निपटना सीख मेरे यार बनकर अनाम
निभा तू भी ब्लागिंग की ये रस्मो-राह टिपणी कर

लिखे अब कौन है रचना, पढे़ है कौन अब रचना,
किये जा पोस्ट बस सप्ताह दर सप्ताह टिपणी कर

यहां भी चलती गुट-बाजी,बना तू भी तो गुट अपना
करे जो तुझको टिपणी कर उसे तू वाह टिपणी कर



अगर है चाह टिप्पणियां मिलें तुझको बहुत सारी
तो लिख टिपणी पे टिपणी सब को कर गुमराह टिपणी कर

लिखेंगे तेरे ब्लोगों पर सभी टिपणी ,बहुत सुन्दर
बनेंगे लोग सारे ही तेरे हमराह टिपणी कर



'सखा' ने देख,अनुभव कर लिखा यह सब ब्लागिंग पर
तो है यह गज़ल कोई तू जर्राह टिपणी कर

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