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Saturday, May 30, 2009

किशोरियों की तरह कूदते-फाँदते


क्या होगा कोई मनुष्य?
क्या होगा
कोई मनुष्य ऐसा
जिसने न उठाया हो
लुत्फ
बादलों की लुकमींचणी का

क्या होगा
मनुष्य ऐसा
जिसने न देखा हो
उल्काओं को
किशोरियों की तरह कूदते-फाँदते

क्या होगा
कोई मनुष्य ऐसा

जिस के पाँव

न जले हों जेठ की धूप में


क्या होगा
कोई मनुष्य ऐसा

जो न नहाया हो
भादों की बरसात में


क्या होगा
कोई मनुष्य ऐसा
जिस की हड्डियाँ

न ठिठुरी हों पूष मास में


अगर होगा
कोई मनुष्य ऐसा

तो अवश्य ही रहता होगा
वह किसी
साठ सत्तर मन्जिले
कठघरे में

किसी महानगर
कहलाते
चिडिय़ा घर में।

Friday, May 29, 2009

आधे दिल में किसे रक्खूं ?



डॉक्टर ने
सरगोशी के लहजे में कहा
सुनो !
एक दिल में
चार वाल्व होते हैं
और
तुम्हारे दो वाल्व खराब हैं
दो वाल्व
माने आधा -दिल
अब तुम्ही कहो
इस आधे दिल में
किसे रक्खूं
तुम्हें या अपने गमों को
तुम्हें तो
स्वस्थ शरीर व जवां दिल
मिल जाय़ेंगे
मेरे गम
बेचारे कहां जायेंगे

Monday, May 25, 2009

बारूदी सुरंगों में पागल रहते हैं-एक आजाद नज़्म


2 कलिंग हर चेहरे पे था शिकस्त का धुँआ
कहते हो कैसे इसे, फतेह का कारवां

दिन करता है मीलों-मील,सफर

रात कटती है, लम्हा दर लम्हा
थकान, लाचारी, बेबसी, बेख्याली थी
लबरेज दु:ख से, हर किसी की प्याली थी

तेरे करीब जो भी आया, हलाक हुआ
तेरी आँच में,हर खुशी, हर गम, खाक हुआ

सीख के गया जो तुझसे इल्म
इल्मो
कत्लो-गारत के हुनर से बेबाक हुआ

तेरी भी ऐ कलिंग अजीब मस्ती है
झुकी तेरे रूबरू प्रियदर्शी हस्ती है

नेस्तोनाबूद होकर भी जीता रहा है तू
हर रूह का फटा दामन सीता रहा है तू
जीतकर तुझको जश्ने फतह न कर पाया अशोक

कैसे थे तेरे जख्म, तेरा लहू, तेरा सोग
सोगवार होना पड़ा उसको भी यहाँ
हर चेहरे पे था शिकस्त का धुआँ

देख कर तेरी बरबादी, रो दिया था सम्राट

छोड़ दिए उसी रोज से, सारे शाही ठाठ-बाट

रोता था और अश्क बहाता था वो
अपने किए पर बार-बार पछताता था वो
पीछे मुड़ता था, मुँह छुपाता था, वो

हर बार तबाही को सामने पाता था वो

बड़ी किल्लत थी, बड़ी बेजारी थी
उसने कलिंग जीता था, पर बाजी हारी थी

उसके जहन में, उमड़ रहे थे अश्कों के बादल

उसकी रूह में उठ रही थी, आँधियाँ पागल

छोड़ के कत्ले-आम, अहिंसा को अपनाना पड़ा
महलों को त्याग, फकीरों की राह जाना पड़ा
तब भी क्या मिल पाया था उसे, सकून
उतर गया था उस पर से, जंग का जुनून

तरफ भी जाता था, रोने की सदा आती थी
सोने न देती थी, हर पल जगा जाती थी

उसके हाथों से, शमसीर छूटी थी
जान लिया था उसने, कि तकदीर फूटी थी

हर कतराए-लहू से, गुल उगाए, उसने

अमन की जय बोली, अहिंसा के परचम, फहराए उसने

आज फिर से तुझको उठना होगा कलिंग

सरगोशी करने लगी है, फिर जंग
आज फिर सब हाथों में हैं तलवारें

जहर उगलने लगी है हर जुबां

हर रूह में है अन्धेरा सा कुआँ
हर चेहरे पर है शिकस्त का धुआं

नहीं याद उन्हें हिरोशिमा नागासाकी है

पोखरण की राख में ब्रह्मास्त्र की राख बाकी है

बुद्ध हंसता है¹ वे कहते हैं
बारूदी सुरंगों में पागल रहते हैं

जब सुरंग फटेगी तो कहकहे ढह जाएंगे

एक बार फिर जमींदोज दोजखी गढ्ढे रह जाएंगे।

शेष रह जाएगी गीदड़ों की हुआँ-हुआँ

हर चेहरे पे होगा फिर शिकस्त का धुआँ।

¹बुद्ध हँसता है-विडम्बना देखिए पोखरण १ विस्फोट का कोड वर्ड संकेत शब्दक था बुद्ध हँस रहा है।

Wednesday, May 13, 2009

अपने ही घर में अजनबी-?



माँ नहीं है

माँ
नहीं है
बस मां की पेंटिंग है,

पर
उसकी चश्मे से झाँकती
आँखें
देख रही हैं बेटे के दुख

बेटा
अपने ही घर में
अजनबी हो गया है।

वह
अल सुबह उठता है
पत्नी के खर्राटों के बीच
अपने दुखों
की कविताएं लिखता है
रसोई में
जाकर चाय बनाता है
तो मुन्डू आवाज सुनता है
कुनमुनाता है
फिर करवट बदल कर सो जाता है

जब तक
घर जागता है
बेटा शेव कर नहा चुका होता है

नौकर
ब्रेड और चाय का नाश्ता
टेबुल पर पटक जाता है क्योंकि
उसे जागे हुए घर को
बेड टी देनी है

बेड टी पीकर
बेटे की पत्नी नहीं?
घर की मालकिन उठती है।
हाय सुरू !
सुरेश भी नहीं
कह बाथरूम में घुस जाती है

मां सोचती है
वह तो हर सुबह उठकर
पति के पैर छूती थी
वे उन्नीदें से
उसे भींचते थे
चूमते थे फिर सो जाते थे
पर
उसके घर में, उसके बेटे के साथ
यह सब क्या हो रहा है

बेटा ब्रेड चबाता
काली चाय के लंबे घूंट भरता
तथा सफेद नीली-पीली तीन चार गोली
निगलता
अपना ब्रीफकेस उठाता है

कमरे से निकलते-निकलते
उसकी तस्वीर के पास खड़ा होता है
उसे प्रणाम करता है
और लपक कर कार में चला जाता है।

माँ की आंखें
कार में भी उसके साथ हैं
बेटे का सेल फोन मिमियाता है
माँ डर जाती है
क्योंकि रोज ही
ऐसा होता है
अब बेटे का एक हाथ स्टीयरिंग पर है
एक में सेल फोन है
एक कान सेलफोन
सुन रहा है
दूसरा ट्रेफिक की चिल्लियाँ,
एक आँख फोन
पर बोलते व्यक्ति को देख रही है
दूसरी ट्रेफिक पर लगी है
माँ डरती है
सड़क भीड़ भरी है।
कहीं कुछ अघटित न घट जाए?

पर शुक्र है
बेटा दफ्तर पहुँच जाता है
कोट उतार कर टाँगता है
टाई ढीली करता है
फाइलों के ढेर में डूब जाता है

उसकी सेक्रेटरी
बहुत सुन्दर लड़की है
वह कितनी ही बार बेटे के
केबिन में आती है
पर बेटा उसे नहीं देखता
फाइलों में डूबा हुआ बस सुनता है
कहता है, आंख ऊपर नहीं उठाता

मां की आंखें सब देख रही हैं
बेटे को क्या हो गया है?

बेटा दफ्तर की मीटिंग में जाता है,
तो उसका मुखौटा बदल जाता है
वह थकान औ ऊब उतार कर
नकली मुस्कान औढ़ लेता है;
बातें करते हुए
जान बूझ कर मुस्कराता है
फिर दफ्तर खत्म करके
घर लौट आता है।

पहले वह नियम से
क्लब जाता था
बेडमिंटन खेलता था
दारू पीता था
खिलखिलाता था
उसके घर जो पार्टियां होती थीं
उनमें जिन्दगी का शोर होता था

पार्टियां अब भी
होती हैं
पर जैसे कम्प्यूटर पर प्लान की गई हों।
चुप चाप
स्कॉच पीते मर्द, सोफ्ट ड्रिक्स लेती औरतें
बतियाते हैं मगर
जैसे नाटक में रटे रटाए संवाद बोल रहे हों
सब बेजान
सब नाटक, जिन्दगी नहीं

बेटा लौटकर टीवी खोलता है
खबर सुनता है
फिर
अकेला पैग लेकर बैठ जाता है

पत्नी
बाहर क्लब से लौटती है
हाय सुरू!
कहकर अपना मुखौटा तथा साज
सिंगार उतार कर
चोगे सा गाऊन पहन लेती है
पहले पत्नियाँ पति के लिए सजती
संवरती थी अब वे पति के सामने
लामाओं जैसी आती हैं
किस के लिए सज संवर कर
क्लब जाती हैं?
मां समझ नहीं पाती है

बेटा पैग और लेपटाप में डूबा है
खाना लग गया है
नौकर कहता है;
घर-डाइनिंग टेबुल पर आ जमा है
हाय डैडी! हाय पापा!
उसके बेटे के बेटी-बेटे मिनमिनाते हैं
और अपनी अपनी प्लेटों में डूब जाते हैं
बेटा बेमन से
कुछ निगलता है फिर
बिस्तर में आ घुसता है

कभी अखबार
कभी पत्रिका उलटता है

फिर दराज़ से
निकाल कर गोली खाता है
मुँह ढक कर सोने की कोशिश में जागता है
बेड के दूसरे कोने पर बहू-बेटे की पत्नी
के खर्राटे गूंजने लगते हैं

बेटा साइड लैंप जला कर
डायरी में
अपने दुख समेटने बैठ जाता है

मां नहीं है
उसकी पेंटिंग है
उस पेंटिंग के चश्मे के
पीछे से झांकती
मां की आंखे देख रही हैं
घर-घर नहीं
रहा है
होटल हो गया है
और उसका
अपना बेटा महज
एक अजनबी।

Thursday, May 7, 2009

जिन्दगी और मौत के बीच-कविता

रेखा
जिन्दगी
और मौत के
बीच
एक धूमिल सी रेखा है
जो
जाने कब
मिट जाएगी किसने देखा है।