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Wednesday, January 27, 2010

बदन हुआ दोहरा है-





धुंध है
कोहरा है 

ठिठुर-ठिठुर 
बदन हुआ दोहरा है

झीलों में दुबके
बैठे हैं हंस
मौसम झेल रहा
मौसम का दंश
हर और ठिठुरन का पहरा है


परिजन घर में हैं
चोर इसी डर में हैं
राहगीर सभी
बटमारों की जद में हैं

टोपी पहन चौकीदार हुआ बहरा है

कोहरा
है झल्ला गया
सब तरफ़  बस
छा गया
जन जीवन हुआ, पिटा सा मोहरा है

हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु
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Saturday, January 23, 2010

चंदा घर जा बैठा है साहिब









धुंध है
अंधेरा है

नभ से उतर कोहरे ने

धरा को घेरा है


दुबके पाँखी

गइया गुम-सुम

फूलों से भौंरे

तितली गुम

मौसम ने मौन राग छेड़ा है


ठिठुरे मजूर
अलाव ताप रहे
पशु पंछी भी

थर-थर काँप रहे

धुंध में
राह ढूंढ रहा सवेरा है

रेल रुकी
उड़ पाते विमान नहीं

सहमी फ़सलें

खेत जोतें किसान नहीं


सूझे हाथ न तेरा मेरा है

सूरज की

किरने हुईं गाइब

चंदा घर जा

बैठा है साहिब

सब जगह कोहरे का डेरा है





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Saturday, January 16, 2010

वह कौन थी-?


वह

वह
एक अरसे से
मेरे
पीछे पड़ी थी
मैंने
लाख
पीछा छुड़ाना चाहा
पर
कामयाब नहीं हुआ

मैंने
उसे
एक दिन बहुत डराया
धमकाया
यहाँ
तक कि मैंने
उसे
धमकी दे डाली कि
मैं उसका गला घोंट दूंगा।

वह
मेरी नादानी
पर मुस्कराई
जैसे
कोई बड़ा बुजुर्ग
छोटे बच्चे
की
नादान शरारत पर
मुस्कराता है


मैं
उससे आजिज
आ गया था
वह तो
परछाई से भी
ज्यादा
चिपक गई थी
मुझसे,

जब डराने
धमकाने का
कोई
असर नहीं
हुआ
तो मैं
खुशामद पर उतर आया

जब
खुशामद भी
नाकाम हो गई
तो
मैं
रोने गिड़गिड़ाने लगा

वह मेरे
रोने पर
पसीज गई
और
खुद भी
रोने लगी
उसकी सिसकियों के
बीच मैंने
सुना,
पगले !
हम पर न कभी
मनुष्य का
हुक्म चला है
न चलेगा
वह
और कोई नहीं
मेरे जहन से
लिपटी
एक
पुरानी याद थी
जो
आज भी
अब भी
मेरे
जहन से लिपटी है
मेरे साथ है।

31ण्8ण्97
रात्रिा दो बजे

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Thursday, January 7, 2010

जब तक सूरज की पीठ न आ जाए,


चलो.....

चलो
इन जानी पहचानी
पगडंडियों को
छोड़ कर
बीहड़ में चलें,
और वहाँ पहुंच कर,
पीठ से पीठ
मिलाकर खड़े हो जाएं
और सफ
शुरू करें
अलग-अलग
एक दूसरे से विपरीत दिशा में
और भूल जाएं कि धरती
गेंद की तरह गोल है,
चलते रहें तब तक
जब तक पाँव थक कर
गति को नकार दें,
चलते रहे तब तक
जब तक सूरज की पीठ जाए,
तब तक
जब तक
अन्धेरा, बूढ़े बरगद की
कोपलों पर
शिशु से कोमल
पाँव रखता,
शाखाओं पर भागता,
तने से उतरकर
धरती पर बिखर जाए,
चलते रहें
तब तक
जब तक
बारहसिंगों की आँखें
चमकने लगे चारों ओर
और फिर
एक स्तब्धता
छा जाए
मौत सी।
चमकती आँखें दौड़ने लगे
तितर-बितर,
फिर एक
दहाड़ यमराज सी दहाड़,
जम जाए
रात की छाती पर।
मैं टटोलता सा
आगे बढूं
और छू लूँ तुम्हारी
गठियाई
उंगलियों को
चलो जानी पहचानी
पगडंडियों को छोड़ कर
चल दे
बीहड़ में



15.7.96 9 बजे रात

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Friday, January 1, 2010

कोयल सी चहके

कोयल सी चहके


फूलों सी महकें





जीवन भर खुशियां





घर आंगन में कें
नव-
नूतन वर्ष में सुख-म्पदा के बरसें घन
दुख दूर कहीं छुप बैठे,प्रफ़ुल्लित हो हर्षें तन- मन

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