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Saturday, February 6, 2010

तुम बतियाते रहे हो इससे उससे जाने किस किस से

सुनो
दोस्त
तुम बतियाते रहे हो
इससे
उससे
जाने किस किस से
भूल गये
इस आपा-धापी
खुद को स्वयं  को
यानी मुझे.
जो बैठा कब का
धड़क रहा है तुम्हारे भीतर
चलो आज अवकाश लेलो
आकस्मिक
या अर्जित
और बैठो मेरे
यानि खुद अपने साथ
पूछो
खुद से खुद का हाल
सहलाओं अपने जख्मों को
बेचारे
कब से तुम्हारी बाट जोह रहे हैं
रिसते रहते हैं
कुछ नहीं कहते हैं
बस मौन रहते हैं
ये रिश्तो की तरह
न तो बौखलाते हैं न पगलाते हैं
कहीं बहुत बेहतर हैं
ये रिसते जख्म
सड़े-गले रिश्तों से
अभी भी सहेजे हैं ये जख्म
अहसासों की टीस
कह सकते हैं
ये जख्म
ऊधो मन न होत दस-बीस
रिश्ते
स्वार्थी हैं
संबंधो के जाल बुनते है
फ़िर पगलाकर सिर धुनते हैं
जख्म तुम्हारे अपने है
जब तब तुम्हे सहलाते हैं
न रिश्तों से बहकाते हैं
न सब्ज-बाग दिखलाते हैं
आओ
बैठो कुछ इनकी सुनो
कुछ अपनी कहो
बहुत हुआ
अब चुप मत रहो

५/२/२०१०



हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु
http://gazalkbahane.blogspot.com/

1 comment:

  1. काश!! ऐसा अवकाश ले पाते!

    बहुत पते की बात कही!

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