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Wednesday, September 9, 2009

मां एक याद-kavita shyam skha

मां
ने
बहुत सरल
बहुत प्यारी
बहुत भोली
मां ने
बचपन में
मुझे
एक गलत
आदत सिखा दी थी
कि सोने से पहले
एक बार
बीते दिन पर
नजर डालो और
सोचो कि तुमने
दिन भर
क्या किया
बुरा या भला
सार्थक
या
निरर्थक
मां तो चली गई
सुदूर
क्षितिज के पार
और बन गई
एक तारा नया
इधर
जब रात उतरती है
और नींद की
गोली खाकर
जब भी
मैं सोने लगता हूं
तो
अचानक
एक झटका सा लगता है
और
मैं सोचते बैठ जाता हूं
कि दिन भर मैंने
क्या किया?कि
आज के दिन
मैं कितनी बार मरा
कितनी बार जिया
फिर जिया
इसका हिसाब
बड़ा उलझन भरा है
मेरा वजूद जाने कितनी बार मरा है
यह दिन भी बेकार गया
मैंने देखे
मरीज बहुत
ठीक भी हुए कई
पर नहीं है
यह बात नई
इसी तरह तमाम जिन्दगी गई
जो भी था मन में
जिसे भी माना
मैंने सार्थक
तमाम उम्र भर
वह आज भी नहीं कर पाया मैं
तो कभी
अपनी मर्जी से जिया
ही
अपनी मर्जी से मर पाया मैं।

12 comments:

  1. माँ को नमन...सुंदर कविता....

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  2. "NA TO KABHI APNI MARJI SE JIYA , NAA HI APNI MARJI SE MAR PAYA ,MAIN"............oh! ati sundar , maa ki seekh ke saath apni pida bhi sama gai. bahut badhiya.

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  3. सही है, अक्सर हमारे हाथ बंधे होते हैं और हम चाहकर भी वो नहीं कर पाते जो हम करना चाहते हैं.

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  4. यह बुरी आदत तो मुझमे भी है...

    बहुत ही सुन्दर रचना...आभार.

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  5. बहुत ही सुन्‍दर अभिव्‍यक्ति ।

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  6. अदभूत रचना ........बधाई

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  7. waah.........adbhut sangam hai maa ki sikh aur antahkaran ki peeda ka.

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  8. मानवीय भावनाओं से ओत-प्रोत कविता के लिए बधाई!

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  9. ऎसी कई बुरी आदते हमारी मां ने भी हम मे डाली थी, बहुत सुंदर.
    धन्यवाद

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  10. सुन्दर भावपूर्ण अभिव्यक्ति!

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  11. सुंदर...अति सुंदर

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  12. मां, एक शब्द, जो कानों में पड़ते ही एक अजीब सी शीतलता, पवित्रता, सुकून का एहसास कराता है. मां की दी गयी कोई भी सीख, बुरी लगने के बावजूद बुरी नहीं होती. मर्मस्पर्शी, भावपूर्ण कविता के लिए बधाई.

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