चलो
चलो
इन जानी पहचानी
पगडंडियों को
छोड़ कर
बीहड़ में चलें,
और वहाँ पहुंच कर,
पीठ से पीठ
मिलाकर खड़े हो जाएं
और सफर
शुरू करें
अलग-अलग
एक दूसरे से विपरीत दिशा में
और भूल जाएं कि धरती
गेंद की तरह गोल है,
चलते रहें तब तक
जब तक पाँव थक कर
गति को नकार न दें,
चलते रहे तब तक
जब तक सूरज की पीठ न आ जाए,
तब तक
जब तक
अन्धेरा, बूढ़े बरगद की
कोपलों पर
शिशु से कोमल
पाँव रखता,
शाखाओं पर भागता,
तने से उतरकर
धरती पर बिखर न जाए,
चलते रहें
तब तक
जब तक
बारहसिंगों की आँखें
चमकने न लगे चारों ओर
और फिर
एक स्तब्धता
छा जाए
मौत सी।
चमकती आँखें दौड़ने लगे
तितर-बितर,
फिर एक
दहाड़ यमराज सी दहाड़,
जम जाए
रात की छाती पर।
मैं टटोलता सा
आगे बढूं
और छू लूँ तुम्हारी
गठियाई
उंगलियों को
चलो
जानी पहचानी
पगडंडियों को छोड़ कर
चल दे
बीहड़ में
आज हम
15.7.96 9 बजे रात
हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु आप यहां सादर आमंत्रित हैं
http://gazalkbahane.blogspot.com/
विश्वास रखें आप का समय व्यर्थ न जाएगा।
!!!
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वाह...!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है।
बहुत खूबसूरत रचना..शब्दों से साकार कर दिया आपने सुंदर विचारों को..
ReplyDeleteबेहतरीन रचना...बधाई..श्याम जी..बहुत बहुत बधाई..
चलो जानी पहचानी पग्द्नादियों को छोड़ कर चल दें बीहड़ में आज हम
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ हैं,सार्थक लेखन के लिए सुभकामनाएँ
behtreen abhivyakti.
ReplyDeletepls read my new blog also:
http://ekprayas-vandana.blogspot.com
श्याम सखा जी देर से आपके ब्लॉग पर आने के लिए माफी
ReplyDeleteआपने सुन्दर रचना प्रस्तुत किया है
चरैवेति चरैवेति...
ReplyDeleteसुन्दर भावाभिव्यक्ति ...!!
कमाल की रचना श्याम जी वाह...बेमिसाल
ReplyDeleteनीरज
aapaki rachanaye hamesha se hi khubsoorat hote hai .......inake shabd our bhaaw dono hi behatrin hote hai...............bahut bahut shukriya
ReplyDeleteबहुत ही लजवाब रचना .
ReplyDeleteधन्यवाद
वाह बहुत ही सुन्दर....
ReplyDeleteभाव और अभिव्यक्ति दोनों ही बेजोड़...
ati sundar shyaam ji...aap ko padh kar hamesha achcha lagta hai..
ReplyDeletekhoobsurat..
कविता आप से रचनाकार के लिए बाएँ हाथ का खेल बन चुकी है, मेरे पास वही पुराने शब्द हैं प्रशंसा के निमित्त, अतः उन्हें कष्ट नहीं दे रहा हूँ. केवल एक बात समझ नहीं आई, कहीं भी चले जाते, बीहडों में ही जाने का मामला कुछ पल्ले नहीं पडा. बहुत विचार करने पर भी कोई सिम्बल बनता नहीं दीखता. इस विषय पर आप से सहयोग अपेक्षित है.
ReplyDeleteसर्वत एम..
ReplyDeleteकेवल एक बात समझ नहीं आई, कहीं भी चले जाते, बीहडों में ही जाने का मामला कुछ पल्ले नहीं पडा. बहुत विचार करने पर भी कोई सिम्बल बनता नहीं दीखता. इस विषय पर आप से सहयोग अपेक्षित है.
सर्वत भाई वैसे तो कविता में निहित अर्थ पढ़ने-सुनने वाला खुद ही जैसा चाहता है निकालता है ,पर २० वर्ष पूर्व यहकविता लिखते हुए जिहन में क्या था सो अलग ,पर आज इसे पाठक की तरह पढ़ते हुए कह रहा हूं कि बीहड़ में पहुंच कर हमें अपनी अपनी राह खुद ढूंढ़नी होती हौ वहां कोई पगडंडी तो होगी नही और दिल के कुतुबनुमा के सहारे फ़िर आ मिलेंगे।आप सभी का आभार कविता अपनाने हेतु
श्याम सखा
सुन्दर अद्भुत रचना बधाई स्वीकार करें
ReplyDeleteमैं पुनः आ गया, ३ बार कोशिशों के बाद नई पोस्ट नहीं मिली. फ़िलहाल, 'बीहड़' पर आपके स्पष्टीकरण का शुक्रिया. लेकिन कुछ शब्द प्रतीक बन कर ही रह जाते हैं और अपनी शिनाख्त प्रतीक से ही तय कराते हैं. बीहड़ डाकू, अराजकता, शोषण, ज़ुल्म, जंगल राज का पर्याय बन चुके हैं, फिलवक्त कविता तो प्रतीकों में ही चलती है. मैं आपको शिक्षा नहीं दे रहा, लेकिन कविता के सम्बन्ध में जो कुछ, जितना कुछ भी ज्ञात है, उसी आधार पर आप से यह कहने की हिम्मत कर रहा हूँ. मैं बीहडों में गया हूँ. मुरैना से ४० कि.मी. दूर एक गाँव है कोटरा, यह चम्बल के बीहड़ों से सटा हुआ है. अब उसमें पगडंडी भी है. मैं ने कई रोज़ वहां घूमते गुज़ारे थे.
ReplyDeletebohot sundar rachna.
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