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Monday, July 20, 2009
सिरफिरे और सलीब-कविता
सिरफिरों ने
जब भी चुना है,
सलीब को चुना है,
किसी सिरफिरे ने
हथिया ली गद्दी,
आपने सुना, गलत सुना है।
गद्दी की पहचान,
उसे कहाँ,
जिसका
सिर फिरा हो,
गद्दी को वो क्या जाने,
जो रोटी-रोजी के मसले से जुड़ा हो।
गद्दी भी,
पसंद करती है उन्हें,
जिनके कूल्हे नरम और जेब गर्म हो,
गद्दी को कब भाए हैं वो,
जो केवल हाड़ हों, चर्म हों।
गद्दी को,
कब पसंद आई हैं
झुकी हुई बोझल निगाहें,
गद्दी को चाहिएं,
वो नजरें जो बेशर्म हों।
यह
आज की बात नहीं,
ये तो सदियों का सिलसिला है,
सोने की छड़ से
क्या
गरीब का चूल्हा जला है।
ये सवाल
सतही नहीं,
मेरे हुजूर दिल का है,
खनखनाते
बलूरी ग्लासों का नहीं,
बनिए के बेहिसाब
बढ़ते बिल का है।
हमेशा
घाटे का पाया है,
गरीब का बजट,
मैंने तुमने चाहे जिसने गुना है,
सिरफिरों ने
जब भी चुना है,
सलीब को चुनाहै
[टिनामिन चौक चीन में विद्यार्थी/टैंक पर]
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sahi likha aapne.
ReplyDeletebadhiya bhav..
kahane ki baat nahi..wahi pahale ki tarah behad umda rachana..
badhayi
लाजवाब....... बहूत ही सत्य कहा है.... अक्सर सलीब को चुनने वाले सिरफिरे ही होते हैं.... अपना नाम बदल बदल कर आते हैं....
ReplyDeleteमुकुट तो हमेशा जनता पर राज करने के लिए होता है!!!!
ReplyDeleteबहुत ख़ूबसूरत और लाजवाब रचना लिखा है आपने!
ReplyDeletebahut hi badhiya rachana ......mai to aapake rachana ka kayal hu
ReplyDeleteएक बेहतरीन रचना. आपका फोन नम्बर ईमेल करें. जो किताब पर है वो हमेशा स्विच ऑफ आ रहा है.
ReplyDeletevah-vah.
ReplyDeleteसोने की छड से
ReplyDeleteक्या
गरीब का चुल्हा जला है!
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बहुत सुन्दर भाव - व्यथा की अंतर्कथा है ये कविता
वाह
very appropriate, beautifully written.
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