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Monday, April 20, 2009

भला लगता है आंगन में बैठना-कविता

आत्म विश्लेषण
भला
लगता है
आंगन में बैठना
धूप सेंकना

पर
इसके लिए वक्त कहां?

वक्त
तो बिक गया
सहूलियतों की तलाश में

और
अधिक संचय की आस में

बीत गए
बचपन
जवानी,
जीवन के अन्तिम दिनों में

हमने
वक्त की कीमत जानी

पर तब तक तो
खत्म हो चुकी थी नीलामी

हम जैसों ने
खरीदे जमीन के टुकड़े

इकटठा कियान धन
देख सके
जरा आंख उठा

विस्तृत नभ
लपकती तड़ित
घनघोर बरसते घन
रहे पीते धुएं से भरी हवा
कभी नहीं देखा
पास में बसा हरित वन

गमलों में
सजाए पत्नी ने कैक्टस
उन पर भी
डाली उचटती सी नजर

खा गया, हमें तो यारों
दावानल सा बढ़ता अपना नगर

नगर का भी क्या दोष?
इसे भी तो हमने गढ़ा

देखते रहे
औरों के हाथ
बताते रहे भविष्य
पर अपनी
हथेली को कभी नहीं पढ़ा।

3 comments:

  1. बहुत बढिया सामयिक रचना प्रस्तुत की है। बधाई स्वीकारें।

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  2. Dekhte rahe auro ke haath...batate rahe bhavishya ....
    per apni hatheli ko kabhi nahi padha....

    Ek mool satya ko bayaan kerti peshkash....

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  3. बहुत बढिया !

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