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Friday, April 10, 2009

रम-बाबा

आज प्रस्तुत है पेशे से डाक्टर और शौक से कवि, कहानीकार, आलोचक, विचारक श्याम सखा 'श्याम' की एक कहानी रम-बाबा। कथाकार श्याम पिछले दस सालों से हिन्दी की त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका 'मसि-कागद' का सम्पादन भी कर रहे हैं।

मैं और राजू पुराने दोस्त व सहपाठी हैं, लगभग दस साल पुरानी बात है । मैं डॉक्टरी पास कर चु्का था और राजू वकालत । दोनों ने अपने कस्बे पास के नगर में प्रैक्टिस शुरू की थी। राजू शाम को कचहरी की धूल फाँककर खाली जेब, खाली पेट मेरे कलीनिक पर आ जाता था । जहाँ मैं भी लगभग सारा दिन खाली बैठा मक्खियाँ मारता था। हम दोनों आमने-सामने बैठे, एक-दूसरे के चेहरे को चुपचाप घूरते, सोचते, कयास लगाते कि किसने, कौन सा तीर मारा? अधिकतर हम एक-दूसरे के चेहरे पर ऊब, थकान और हताशा को पढ़ते। तब तक पास की दुकान का चाय वाला छोकरा, जिसे राजू आते-जाते चाय बोल आता था, आकर मेज पर चाय रख देता। हम दोनों, अपने-अपने गिलास में चाय को ऐसे झांकते जैसे वह मुवक्किल और मैं मरीज खोज रहा होऊँ ।फिर पुरानी आदतवश लगभग इकट्ठे गा उठते, ''हम होंगे कामयाब, हम होंगे कामयाब, एक दिन'' और चाय का गिलास उठाते चियर्स कहकर गिलास टकराते और ठहाका मारकर हँस पड़ते।

गर्दिश के दिन बीत रहे थे। राजेंद्र को कभी-कभार कोई जमानती केस मिल जाता या मेरे पास कोई एक्सीडेंट का मरीज आ जाता तो हम बढ़िया होटल में जाकर जश्न मनाते। मैं हर मरीज पर व राजू हर मुवक्किल पर वे सारे नुस्खे आजमा चुके थे, जो हमने डेल कारनेगी की पुस्तक 'सफल कैसे हों'' में पढ़े थे। मगर शायद वे नुस्खे बहुत पुराने हो चुके थे और आज के जमाने में कारगर नहीं हो रहे थे या कि हम दोनों थे ही इतने घामड़ कि प्रेक्टिस हमारे बलबूते की बात नहीं थी। हम लोग मायूस होकर नौकरी करने कीसोच रहे थे।

एक दिन अनायास ही हम दोनों की मुलाकात ऐसे व्यक्ति से हो गई, जो सफलता के अनूठे नुस्खे जानता था। हर वर्ग, हर उम्र के व्यक्ति उससे सलाह लेने जाते थे। हमने शुरू-शुरू में तो उसके पास जाना अपनी तौहीन समझा
क्योंकि वह एक मैला कुचैला बूढ़ा था, जिसकी शक्ल से ही शैतानियत टपकती थी। उसकी लंबी-उलझी गंगा-जमुनी दाढ़ी के हर बाल से मक्कारी लटकती नजर आती थी। उसकी सफाचट खलवाट ऐसे चमकती थी, जैसे मरुस्थल में नखलिस्तान । उसकी, भूरी मिचमिचाती आँखे देखकर ''सौ चूहे खाकर बिल्ली हज को चली'' कहावत याद आ जाती थी। लोग उसे जाने क्यों हरफन- मौला हुनरमन्द कहते थे? जबकि वह कभी कुछ काम करता नहीं देखा गया था। वह कहाँ रहता था हमें मालूम ही नहीं था? मगर वह सप्ताह के अन्तिम दो दिनों में जाने कहाँ से शहर के बीचों-बीच बनी मस्जिद की सीढ़ियों पर बीड़ी पीता दिख जाता था। निठल्ले जुआरी-सट्टेबाज दाँव या लाटरी का नंबर पूछने की गरज से उसके आस-पास मंडराते रहते थे। वह सबसे लापरवाह अपनी बीड़ी के कश लगाता आसमान निहारता रहता था। कई बार संभ्रान्त दिखने वाले आदमी और औरतें कारों में आते उसको सलाम-नमस्ते करते उसके पास सीढ़ियों पर बैठ जाते। ऐसे वक्त जुआरी तथा सटोरिये दूर खिसक लेते थे।



मेरे पड़ोस में लाटरी स्टाल लगाने वाला गुलशन मदान उसका बड़ा भक्त था। मैंने हुनरमन्द को कई बार उसके साथ जाते देखा था। आज शनिवार था मदान शाम को उसके पास जाता था। मैंने मदान को बुलवाया और उसके बारे में पूछा तो मदान खिल उठा, कहने लगा ''ओ साहब रम-बाबा (मदान तथा कुछ लोग उसे रम-बाबा कहते थे) तो बादशाहों का बादशाह है। हर धंधे के बारे में ऐसे जानता है जैसे दाई औरत के पेट को। उसके नुस्खे लाजवाब होते हैं, तुसीं (आप) कदी ( कभी) आजमा के देखो।''
मैं खाली बैठे, मक्खी मारते-मारते तंग आ चुका था। अतः पूछ बैठा कि वह मस्जिद के अलावा कहीं और मिल सकता है ?

''ओह! तुसीं हुक्म करो! मैं तुहाडे कोल ले आवांगा (अजी ! आप हुक्म करें, मैं उसे आपके पास ले आऊँगा)। ''

मैंने कुछ सोचकर कहा ''ठीक है, आज ही ले आओ, रात नौ बजे के बाद ।''

मैं लगभग साढ़े आठ बजे क्लिनिक बन्द करके ऊपर कमरे पर आ गया। राजेन्द्र भी कमरे पर था। दस दिन से उसने किसी मुवक्किल का मुँह नहीं देखा था। अतः वह बोतल खोले बैठा था। जब मैंने उसे बतलाया कि मदान बूढ़े हुनरमंद को ला रहा है तो वह उछल पड़ा,
''चलो मुवक्किल न सही, शायद कहानी का मसाला ही हाथ लग जाए ।''

राजू कभी-कभार कविता-कहानी लिख लेता था, उस की चार-पाँच कहानियाँ छप चु्कीं थी। मुझे इस तरह का कोई शौक न था।

लगभग साढ़े नौ बजे गुलशन हुनरमंद को लेकर आ पहुँचा। काईयाँ गुलशन के चेहरे पर अजीब तरीके श्रद्धा चिपकी हुई थी। उसने उस लंबे-तगड़े बूढ़े हुनरमंद को कुर्सी पर बैठा दिया और खुद जमीन पर उसके करीब बैठ गया।
बाबा ने सिगरेट सुलगाकर लंबा कश लिया और बोलने लगा, उसकी आवाज उसके डील-डौल, हुलिये के मुकाबिल बड़ी निराली थी । ''बेटो आजकल पैसे मेहनत, ईमानदारी, शराफत से नहीं, हुनर से कमाए जा सकते हैं । डॉक्टर तेरा धंधा थोडा मुश्किल है,अगर धंधा करना है तो प्रोफेशनल हो जा । रूह यानि आत्मा घर छोड़ आया कर क्लिनिक साथ मत लाया कर । देख, जो लोग तुझे फीस देने में आना-कानी करते हैं ना, उनसे निबटने का व फीस वसूल करने का सरल नुस्खा है ।
फिर मदान ने थैले से रम की बोतल निकाली और बाबा के सामने रख दी। रम-बाबा की आँखें छत पर टिकी थीं। मदान उसके पैर दबाए जा रहा था। लगभग दस मिनट बीते होंगे। रम बाबा ने हुंकार लगाई ''बोल अलख! दे किस्मत पलट'' और उसकी नजर मेज पर रखी रम की बोतल पर गई। वह बोतल को घूरने लगा। मैं और राजू अब तक चुपचाप तमाशाई बने बैठे थे और रम बाबा तो जैसे हमारी मौजूदगी से बेफिकर था, फिर उसने बोतल का कार्क खोला, लगभग चौथाई बोतल फर्श पर उड़ेल दी। राजू उठकर कुछ कहने को हुआ। मैंने उसका हाथ पकड़ लिया। रम बाबा ने बोतल मुँह से लगाई और देखते-देखते वह लगभग पूरी बोतल ही गटक गया। वह फिर छत या आसमान की तरफ ताकने लगा था। मदान अपने उसी कांईयाँ हाव-भाव से बाबा के दुबले पतले रोयेंदार पाँव दबाए जा रहा था। हम पर एक-एक पल भारी होता जा रहा था।

लगभग पाँच मिनट बाद, रम बाबा फिर जमीन पर लौटे और बोले, ''बोल अलख ! मूरख निपट! किस्मत पलट! मदान ने हमें संकेत किया। शायद इन्सान की फितरत ही ऐसी है कि अजीब व लीक से ह्टकर अनजानी शक्तियों को पूजने लगता है। जैसे गुफा मानव सूरज, पवन, पहाड़, आग, बादल, नदी, बिजली आदि को डरकर पूजता था उसी तरह आज भी हम जब भविष्य के प्रति अनिश्चित होते हैं तो गु्फा मानव की भयभीत मानसिकता में आ जाते हैं और ज्योतिषी, पंडितों, साधुओं, तांत्रिकों तथा पीठ, मजारों की गैबी ताकत के आगे झुक पड़ते हैं । शायद यही कारण था कि राजू और मैं मदान के संकेत पर रम बाबा के सामने हाथ जोड़कर जमीन पर बैठ गए।

मदान ने पैर दबाते-दबाते, बड़े दयनीय भाव से बाबा से कहा, ''बाबा! यह साडे डॉक्टर साहब ने ते एह ने वकील साहब, इन्हांदा उद्धार करो, इन्हानूं इन्हां दे पेशे दे कामयाब नुस्खे बतलाओ और सिगरेट की एक डब्बी व माचिस रम बाबा को पकड़ा दी।
बाबा ने सिगरेट सुलगाकर लंबा कश लिया और बोलने लगा, उसकी आवाज उसके डील-डौल, हुलिये के मुकाबिल बड़ी निराली थी । ''बेटो आजकल पैसे मेहनत, ईमानदारी, शराफत से नहीं, हुनर से कमाए जा सकते हैं । डॉक्टर तेरा धंधा थोडा मुश्किल है,अगर धंधा करना है तो प्रोफेशनल हो जा । रूह यानि आत्मा घर छोड़ आया कर क्लिनिक साथ मत लाया कर । देख, जो लोग तुझे फीस देने में आना-कानी करते हैं ना, उनसे निबटने का व फीस वसूल करने का सरल नुस्खा है । मान ले, तेरे पास कमर दर्द का मरीज आया, उसे जाँच कर दवा लिख दे पर उसके एक्स-रे मत कर । क्या बचेगा एक्स-रे में बीस-तीस रुपये, दवा भी ऐसी लिख कर पूरा आराम न हो, दूसरी बार जब वह आकर कहे कि, आराम कम है तो उसे दवा बदलकर दे दे तथा उसके कान में चुपके से डाल दे कि आराम नहीं हुआ तो सी.टी. स्केन की सोचेंगे कहीं कोई बड़ी बीमारी न हो । तीसरी बार साला खुद सी.टी. स्केन पर खरचेगा । तुझे चार सौ रुपए कमीशन के मिलेंगे, जो उसने तुझे पूरी बीमारी में नहीं देने थे ।''

''वो जो तेरे सामने डॉ. रजनी है ना भूखों मरती थी । एक दिन उसे नुस्खा बतलाया था। आज देख कर, कोठी, बंगला सब है साली के पास । बतलाऊँ? नुस्खा क्या था ? सुन उसके पास जब भी कोई औरत या लड़की जाँच हेतु पेशाब टैस्ट कराने आती है ना तो वह उसे बातों में लगाकर पता कर लेती है कि उसे बच्चा चाहिए कि नहीं, अगर औरत को बच्चा नही चाहिए तो वह टैस्ट रिपोर्ट में चाहे बच्चा आए या ना आए उसे कहती है कि रिपोर्ट पॉजटिव है। माने उसे बच्चा है अब तो औरत के पाँव तले की धरती निकल जाएगी और अगर लड़्की कुंआरी हुई तो आसमान टूट पड़ेगा उस पर और वह हर हालत में अबार्शन करवाएगी । टैस्ट में डाक्टर को क्या खाक बचना था ? '' अब बेहोशी का टीका लगाया । थोड़ी-सी छेड़छाड बच्चेदानी में की और पा लिए सैकड़ों रुपए बिना अबार्शन किए । सच बताऊँ उसे अबार्शन करना आता ही नहीं, असली अबार्शन तो उसकी असिस्टैंट डॉक्टर ही करती है और तू वकील, तेरा मामला तो आसान है । बस एक बार मुवक्किल फंसा ले, कितनी ही थोड़ी फीस ले ले, दस-पाँच पेशियों के बाद मुवक्किल को मुंशी से समझवा दे कि जज रिश्वत खाकर फैसले करता है । फिर देख मुवक्किल खुद ही तेरे पास भागा आयेगा रिश्व्त की पोटली लेकर। एकदम से मत रख लेना। कहना, टाउट ढूँढता हूँ । मुवक्किल के बार-बार जोर देने पर रिश्वत के पैसे रख लेना, यह कहकर कि टाउट मिल गया है और अपने खिलाफ के वकील को भी इसी तरह तैयार करले अब वादी-प्रतिवादी दोनों में से एक को तो जीतना ही है । बस हारने वाले के पैसे ईमानदारी से वापिस कर दो और जीतने वाले के पैसे दोनों वकील आधे-आधे बाँट लेना । हारने वाले से कहना कि तेरा केस तो पक्का था शायद दूसरी पार्टी ने रिश्वत ज्यादा दे दी । अब तो बुरा जमाना आ गया भाई पर कोई बात नहीं, हाईकोर्ट है ना और उससे अपील करवाकर हाईकोर्ट के वकील से कमीशन ऐंठ । बाबा कहकर चुप हो गया, फिर कहने लगा, ''अरे ! तुम ऐसा नहीं करोगे तो जज ऐसा करेंगे । मैं खुद पेशकार था, कभी, बहुत कुछ देखा है मैंने । एक जज तो बड़ा ईमानदार किस्म का बेईमान था । वह कभी भी हारने वाले को नहीं जिताता था, चाहे कितने ही पैसे कोई क्यों न दे ? उसका तरीका बड़ा नायाब था बहस के बाद, फाइल पढ़कर देख लेता वादी या प्रतिवादी में से कौन जीतेगा ? बस जीतने वाले के पीछे, मुझे लगा देता और जब तक वह प्रसाद न चढ़ा देता । तारीख लगती रहती । प्रसाद चढ़ाने पर ही फैसला लिखा जाता । न मिलने पर जज के तबादले पर अगला जज ही फैसला लिखता। दुबारा बहस सुनकर ।'' रम बाबा कुछ सौम्य हो चले थे । शायद उन्हे भी इस बात का एहसास हो गया था । उन्होने रम की बची-खुची बोतल गले में उड़ेली छत की तरफ ताका और ''अलख-किस्मत-पलट''कहकर उठकर चल दिए।

मैं और राजू भी राजू की लाई विहस्की पीकर सो गए । रात अचानक मुझे लगा कमरे में भूचाल आ गया है। उठा तो मालूम हुआ कि भूचाल नहीं आया था । राजू मुझे जोर-जोर से हिलाकर उठा रहा था ।
''ओ सिविल सर्जन उठ ! एमरजेंसी आई है, खड़ा हो यार, क्या गधे बेचकर सोता है, तू ? डॉक्टर की नींद तो कुत्ते जैसी होनी चाहिए ।''

मैं जल्दी से उठकर नीचे गया, देखा पड़ोसी रामकिशन हलवाई अपनी बीमार माँ को रिक्शा पर लेकर आया था ।वह कहने लगा, ''डॉक्टर साहिब, मेरी माँ दमे की पुरानी मरीज है । अबसे पहले हम डॉक्टर सन्तलाल के पास जाते थे, वे ‚ग्लूकोज में चार-पाँच टीके लगाते हैं, आक्सीजन देते हैं तब कहीं जाकर दो दिन में ठीक होती है । अबकी बार हमने सोचा, पड़ोसी डॉक्टर को दिखा लेते हैं । आप जल्दी ‚ग्लूकोज लगाएं बहुत तकलीफ में है ।''

मैंने अन्दर जाकर उसकी माँ की जाँच की तो पाया कि वह सचमुच दमे की मरीज है । एक बार तो रम बाबा की बात याद कर सोचा‚ ग्लूकोज तथा आक्सीजन लगा ही दूँ। मन दुविधा में था कि रम बाबा की बात मानूँ या न मानूँ । पर फिर मेरी आत्मा ने मुझे धिक्कारा और मैंने रमबाबा की बात न मानकर उससे भी ऊपर वाले 'बाबा' (भगवान) की बात मानकर, बुढिया को नेबुलाइजर से दवा दी, कुछ मिंटों में ही उसे आराम आ गया । उसे कुछ दवा व इन्हेलर लिखकर दिया और लेने का तरीका समझा दिया । बूढ़िया व रामकिशन हैरान थे ।

बूढ़िया के इतने जल्दी बिना ‚ग्लूकोज व टीके के आराम हो जाने से एक बार पूछा ''डॉक्टर साहिब दोबारा तो अटैक नहीं हो जाएगा ।''

मैंने कहा, 'नहीं'अब अगर तुम इन्हेलर लेती रही तो ऐसा अटैक नहीं पड़ेगा। बूढ़िया आशीष देती हुई चली गई। पता नहीं बूढिया की आशीष का असर था या रामकिसन द्वारा किये गये, अपनी माँ के ठीक होने के प्रचार का, रम-बाबा के नुस्खों के बिना ही मेरी प्रेक्टिस चल निकली थी ।

7 comments:

  1. बहुत सुन्दर और मार्मिक कथा है। बधाई स्वीकारें।

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  2. श्याम जी

    सच्चाई और सिद्धांतों पर चलना ही अंततः
    ज़िन्दगी की हर ज़ंग जीता देता है
    Very motivating wonderful story !!!!

    Thanx for ur warm words also on my Blog

    Regards!!.

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  3. वाह सच ज़िन्दगी ऐसे ही है .

    ना जाने कब पलट जाती है.

    सुन्दर अभिव्यक्ति

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  4. BAHUT HEE ROCHAK GAHRA VYANG BHEE AUR PRERNA BHEE .

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