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Monday, October 19, 2009

रोशनी की आवाज--श्याम सखा

मैं
सुनसान अन्धेरों
के जंगल में
भटक रहा था
कि तेरी आवाज
रोशनी बनकर आई
और मेरा हाथ पकड़ कर
चलने लगी
बूढ़े वक्त को
आवाज का ऐसा
करना
बेहयाई लगा
उसने
आवाजू को गूंगा कर दिया
और
मेरे रास्तों को
फिर अन्धेरों से भर दिया
तब से
अब तक
मैं सुनसान अन्धेरों के
जंगल में
तेरी आवाज को
आवाज देता हूं
और फिर
खाली हाथ
वापिस लौटी
आपनी आवाज को सुनता हूं
अन्धेरों में स्वयं को
टटोलता हूं
सिर धुनता हूं।


दिसंबर 25 रात्रि 11ण्30



हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु
http://gazalkbahane.blogspot.com/

8 comments:

  1. वाह वाह क्या बात है! बहुत ही ख़ूबसूरत और लाजवाब रचना लिखा है आपने जो काबिले तारीफ है!

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  2. जिंदगी की तल्ख सच्चाइयों को कविता की शक्ल में पेश करके आप मुबारकबाद के हकदार हो गये. कविता की सबसे ख़ास विशेषता यह रही कि सारे बिम्ब एवं प्रतीक इतने सहज और सरल हैं कि कविता से जुड़ने में कोई दुश्वारी नहीं होती.

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  3. यथार्थ वादी सोच की परिचायक है यह कविता!बधाई!

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  4. बढ़िया भाव पिरोया है श्याम जी..कविता अच्छी लगी...धन्यवाद

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  5. आपने इस रचना को बहुत सुंदर भावों से सजाया है !!

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  6. वाह कितने सुंदर भावः और कितनी सुंदर बुने...बहुत ही खुबसूरत रचना है.
    ब्लॉग पर जर्रा नवाजी का बहुत शुक्रिया.साथ बनाये रखियेगा.

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