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Friday, September 10, 2010

देखकर हालत बुतों की-

देखकर हालत बुतों की:हर देश की सरकार जन-हिताय,जन-सुखाय नीतियाँ,योजनाएँ बनाकर उन्हे लागू करके जनता की स्थिति सुधारने का दावा ही नहीं करती बल्कि अपने किये-अनकिये क्रियाकलापों का गुणगान करने के लिये अखबारों मे पूरे सफ़े के विग्यापन जारी करती है.और अपने नेताओं की याद में या वोट बैंक को राजी करने के लिये चौराहों ,पार्कों मे नेताओ के मुस्कराते दमकते चेहरों भाव -भंगिमाओं वाले बुत लगा देते हैं,कहने को ये बुत आम जनता,युवा पीढी हेतु प्रेरणा के श्रोत हैं ,पर क्या वास्तव में ऐसा है ?
    एक दिन टहलते हुए पार्क में लगी नेताजी सुभाषचंद्र बोस के बुत के पास पड़ी बैंच पर जा बैठा.पास ही एक दम्पति घास में बैठा था उनका ७-८ साल का बेटा धमाचौकड़ी मे मशगूल था,बच्चा बुत के पास आकर पत्थर पर खुदे नेताजी के विश्व प्रसिद्ध बोल अटक-अटक कर पढ़्ने लगा —-तु..म..मु..मुझे ..खू..खून..दो.खून दो फिर वह चिल्ला उठा.खू.अ अ न ,खून
 खून-खून की चिल्लाहट सुन मां बाप चौंककर पास आ गये; पूछने लगे क्या हुआ ? कहां है खून ?
 बच्चे ने नेताजी के बुत के नीचे इशारा करते हुए कहा ‘वो ! देखो’.लिखा खून देखकर उनकी जान में जान आई । वे हँसने लगे ,पिता बोला ‘बेटा इसमें डरने की क्या बात है ?’
 बेटा रुआंसा होकर कहने लगा ‘हेल्प द पूअर फेलो ,ही इज इल ,ही नीडस ब्लड .पापा यह आदमी खून मांग रहा है । यह बीमार है,आप टी.वी वालों को बुलायें । वे उस दिन उस गरीब लड़्की के लिये ओ निगेटिव खून की अपील कर रहे थे; उसे खून मिल गया था, इसे भी मिल जायेगा प्लीज पापा टीवी वालों को फोन करें । बच्चा उत्तेजित था.उसका पिता उसे गोद में लेकर उस महान उक्ति का अर्थ समझाने की नाकाम कोशिश कर रहा था । बच्चे की बात ने मेरे मन को उद्वेलित कर दिया और मैं अपने नगर के और बुतों का हाल जानने के लिये निकज पड़ा, तो पाया कि नगर के बुतों की हालत वाकई खराब़ थी ।
  गांधी जी की सफेद संगमरमर की प्रतिमा धूल से अटी पड़ी थी । उसपर बैठा कबूतर-कबूतरी का किलोल करता जोड़ा शायद उनके ब्रह्मचर्य के सिद्धान्त की धज्जियां उखाड़्ने की फ़िराक में था ।
 आगे चलकर  पाया कि बाबा साहेब की एक उंगली पर एक कव्वा बैठा था तथा दूसरे हाथ में पकड़े संविधान पर दूसरा कव्वा काबिज था तथा अपनी काक-द्रिष्टि से संदेहात्मक ताक-झांक कर रहा था । चंद्रशेखर आज़ाद के पिस्तोल पर बैठी एकाकी फ़ाख्ता संभवत: अमन का संदेश देने के मूड मे थी मगर श्रोताओं के अभाव मे मौन धारण किये थी ।
 सरदार भगत सिहं के बुत के नीचे बैठे दो मज़दूर बीड़ी का धुंआ उगल रहे थे.वे शायद किसी जीवित सिक्ख के सामने ये हरकत न कर पातेक । एक और नजारा इस तरह  था कारगिल में शहीद हुए दो जवानो के पिद्दी से बुतों के बीच एक स्थानीय नेता की विशाल रौबीली प्रतिमा विराजमान थी.वहीं दीवार पर किसी सुधि दर्शक ने लिख दिया था –
              जो था कभी सिंह आज मिरगछौना हुआ
              नेताजी के बुत के आगे शहीद बौना हुआ

आगे चला तो अनहोनी की आशंका से दिल दहल उठा एक जातीय नेता के बुत पर कई बच्चे चढ़े हुए थे । मुझे लगा कि उनके खेल खेल में कहीं नेताजी की बाँह या नाक टूट गई तो लेने के देने पड़ जाएंगे .क्योंकि ऐसा होते ही छुटभैये नेता जो ऐसे अवसरों की ताक में ही रहते हैं उन्हे राजनीति व अखबारों की सुर्खियों मे आने का मौका मिल जाएगा । वे धरना ,जाम पर उतर आएंगे और पुलिस को लाठी भांजने की सुविधा मिल  जायेगी । विरोधी पार्टियों को भी तो मुद्दा मिल जाएगा सरकार को कोसने का और इस सब को भुगतेगी जनता । यह सब सोचकर मैने ब्च्चों को हड़्काया तो वे वहां से भाग निकले । मुझे एक सार्थक काम करने का सुखद अहसास हुआ.यही नहीं एक चौराहे पर तो कैलाशवासी भगवान शिव को भगतों ने लोहे के कारागार में बंदी बनाकर बैठा रखा था- कारण चढ़ावे की सुरक्षा करना था. मेरे जहन में एक सवाल तब से बैठा है कि क्या हम अपने नेताओं के बुत चौराहे पर लगा कर क्या सचमुच नवपीढ़ी को कोई प्रेरणा दे पा रहें हैं या बैठे बिठाये इन राजनैतिक छुट- भैयों को दंगे फैलाने की,सामाजिक समस्यायें पैदा करने के हथियार सौंप रहे हैं,अगर आंकड़े एकत्रित कियें जायें तो पता लगेगा कि बुतों की तोड़-फोड़ से उत्पन्न जातीय व साम्प्रदायिक झगड़ों से कानून व्यवस्था बिगड़्ने एवं  उसे काबू करने में न केवल देश की करोड़ों की सम्पति का नुकसान होता है अपितु कितने बेकसूर लोगों की जान जाती है ।
      मेरी अल्प समझ के अनुसार अगर बुत लगाने आवश्यक ही हैं तो राज्यस्तर पर एक म्यूजियम बना दिया जाये,जहां जो भी संस्था या पार्टी बुत लगाना चाहे अनुमति लेकर त्तथा एक सुनिश्चित एकमुश्त न्यास राशि  जमा करवाकर बुत लगाले तथा नेताजी के निर्वांण या-जन्म दिवस पर म्यूजिम के प्रांगण में उत्सव मना ले । भगवानों- महात्माओं की प्रतिमाएं केवल मंदिरों या सभागारों में ही लगाईं जायें । इसका सुन्दर उदाहरण चंडीगढ़ या कोटा शहर है जहां के चौराहे फ़ूलों से लदे हुए आँखो व मन को मोह लेते हैं ।
 आज बुतों के हालात देखकर तो ये पंक्तिया मन मे उभरतीं हैं—
    
           देखकर हालत बुतों की हैं लगाते
           टूटने को आइनो से होड़ पत्थर
श्यामसखा ‘श्याम’१२ विकास रोहतक १२४०01



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2 comments:

  1. Shyam ji bahut dino baad aapke blog par aana huaa...

    bikul sahee kaha aapne

    देखकर हालत बुतों की हैं लगाते
    टूटने को आइनो से होड़ पत्थर

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  2. बहुत सही. यहां तो गांधी जी के बुत पर और उसकी फ़ेंस पर लोग कपड़े तक सुखाते पाये गये.

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