मैं
सुनसान अंधेरों
के जंगल में
भटक रहा था
कि तेरी आवाज
रोशनी बनकर आई
और मेरा हाथ पकड़ कर
चलने लगी
बूढे वक्त को,
आवाज का ऐसा
करना
बेहयाई लगा
उसने आवाज को,गूंगा कर दिया
और मेरे रास्तों को
फ़िर अंधेरों से भर दिया
तब से अब तक
मैं सुनसान अंधेरों के
जंगल में
तेरी आवाज को
आवाज देता हूं
और फिर
खाली हाथ लौटी
अपनी आवाज को सुनता हूं
अंधेरो में स्वयं को
टटोलता हूं
सिर धुनता हूं
हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु http://gazalkbahane.blogspot.com/
बूढे वक्त को,
ReplyDeleteआवाज का ऐसा
करना
बेहयाई लगा
उसने आवाज को,गूंगा कर दिया
बहुत खूब ।
मार्मिक अभिव्यक्ति ।
भावपूर्ण कविता
ReplyDeleteआभार