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Sunday, August 1, 2010

बूढा वक्त और बेहया आवाज

मैं
सुनसान अंधेरों
के जंगल में 
भटक रहा था
कि तेरी आवाज
रोशनी बनकर आई
और मेरा हाथ पकड़ कर
चलने लगी
बूढे वक्त को,
आवाज का ऐसा
करना
बेहयाई लगा
उसने आवाज को,गूंगा कर दिया
और मेरे रास्तों को
फ़िर अंधेरों से भर दिया
तब से अब तक
मैं सुनसान अंधेरों के 
जंगल में 
तेरी आवाज को
आवाज देता हूं 
और फिर
खाली हाथ लौटी
अपनी आवाज को सुनता हूं
अंधेरो में स्वयं को
टटोलता हूं
सिर धुनता हूं
























हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु http://gazalkbahane.blogspot.com/

2 comments:

  1. बूढे वक्त को,
    आवाज का ऐसा
    करना
    बेहयाई लगा
    उसने आवाज को,गूंगा कर दिया

    बहुत खूब ।
    मार्मिक अभिव्यक्ति ।

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  2. भावपूर्ण कविता
    आभार

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