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Friday, January 16, 2009

*मैं जब भी हक ओ हकूक की बात करता हूं

पुरस्कृत कविता- मैं जब भी हक ओ हकूक की बात करता हूं

मैं
जब भी
हक ओ हकूक
की बात करता हूं
मैं
जब भी
इन्सां के वजूद की
बात करता हूं
तो
लोग
लाठियां लेकर
मारने दौड़े चले आते हैं
चिल्लाते हैं
कि
इस पर
मसीहा उतर आया है
फिर
किसी इन्सान पर
बुद्ध, ईसा या माक्र्स
बनने का
भूत समाया है
मानो
ये सब
लक्कड़बग्घे थे
जो
बच्चों को
उठा ले जाते थे
पहले जब ऐसी बातों
पर
सर फुटौवल होता था
तो दोस्त
समझाते थे
कि
पगले
ऐसी बातें मत किया
और को जीने दे
और खुद भी जिया कर
पर मैं
उनकी बातें पचा नहीं पाता था
अब जब भी
हको हकूक
या इन्सा के वजूद की
बात पर
पिट-पिटा कर
घर लौटता हूं
तो
पत्नी आंचल से
मेरा
लहू पौंछती है
घी
हल्दी से
शरीर की चोट सेकती है
कातर
निरीह
आंखों से मेरे दिल में
झांकती है,
उसकी इन
नजरों से
मैं कमजोर पड़ जाता हूं
मेरी
रूह आंन्धी में
दीए की मानिन्द कांपती है
मैं सोचता हूं
कि अब तक
जो ख्वाब बुने थे
इन्सानियत के
सारे के सारे तोड़ दूं
पर
तभी सामने आ खड़ी होती है
बसु
माने
छोटी सी
प्यारी सी
बेटी
मेरी बेटी बसुदा
साफ
पाक आंखों से झांकती
मानो मेरी
कमजोरी को भांपती
जैसे
पूछती हो
पापा फिर कौन लड़ेगा?
उन लोगों ने
जिन्होंने खरीद लिया है
दाखिले
इंजिनयरिंग
और मेडिकल कालेजों के
जिन्होंने
मिलकर बांट ली है
सारी
नौकरियां
जाति धर्म
और भाई भतीजावाद
का नारा लगाकर
विश्वमुद्राकोष और पूंजीवादियों के हाथों
छीन रहे हैं
दस्तकारों के जीने का हक
मैं लड़खड़ाता सा
पत्नी के
कान्धे का सहारा लेकर
खड़ा होता हूं
और
अपनी कमजोरी की लाश
पर
खड़ा होकर चिल्लाता हूं
इंकलाब
जिन्दाबाद।
और
एक बार फिर
तैयार हो जाता हूं
ह्को-हकूक की
लड़ाई लड़ने के लिये

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