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Sunday, May 9, 2010

औरत अबला रही होगी कभी -

अपने अपने हस्तिनापुर

बंधे थे
राजा दशरथ
अपने वचन से
इसलिए दु:ख पाए
या फिर शापगzस्त थे
श्रवण के
अंधे माता-पिता के श्राप से

मैं मगर
क्यों हूं दुखी
बंध गया हूं
कुछ अपावन सहूलियतों
में
एक अदद घर
या मकान
जिसकी कर्जे की किश्त
चुकाते-चुकाते शायद मैं स्वयं चुक जाÅंगा

घर में बिजली है
पानी है
उसका बिल भी तो देता हूं
अपने पसीने को बहाकर
फिर गृहकर
मरम्मत सफेदी
फर्नीचर हर चीज तो खून की किश्त
मांगती है

और एक अदद
औरत जो पत्नी की उपाधि से
विभूषित है
कभी औरत अबला रही होगी
अब तो अशक्त है पुरूष
संसर्ग के लिए भी
तो याचना करते हुए इंतजार करता है।

पत्नी नामक औरत
के बच्चे हैं
हां सत्य तो यही है
कि वे पत्नी के बच्चे हैं
वे पुरूष पति के
भी बच्चे हैं
यह कथन या तो महज छलावा है
या फिर
भzमित विश्वास
जो सत्य की कसौटी पर
शायद ही पूरा उतर सके

बच्चों की जरूरतें हैं
फीस टयूशन स्वीमिंग पूल
हाWबी क्लास टूअर यात्रा
जेब खर्च
कपड़ा लत्ता तन ढंकने को नहीं
बदलते फैशन
से रफ्तार मिलाने के लिए
और बदले में क्या
मिलता है ?

वही दशरथ
जैसा असहायपन
वही कुछ न, वही अशक्त संज्ञा
वहीं कुछ न, वही निश्वास
बस और क्या

पैर लग जाता है
बेटे का पैर लग जाता है
मैगजीन से
किताब से
उठाता उस किताब को
माथे से लगाता
माफी मांगता है
मगर
कुचल देता है
रौंदे देता है
मां बाप का दिल
अपने कंटीले तनाव भरे
व्यवहार से
माफी मांगना तो दूर
महसूस भी नहीं करता
कहता क्या किया है उसने।

बेटी भी
मस्त है, सपने देखती है
सपने बुनती है
पत्नी भी
अब कहाँ उसकी सुनती है
उसका घर-संसार
रिश्ते नाते-किट~टी पार्टियाँ है
पति के लिए
उसे भी फुर्सत कहाँ है?



हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु http://gazalkbahane.blogspot.com/

4 comments:

  1. बाऊ जी, ह

    हा हा हा

    आप लड्डू खाके हमें बता रहे हैं कि कुपच होगा! गलत बात....

    हा हा हा

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  2. आपकी यह पोस्ट चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर मंगलवार १.०६.२०१० के लिए ली गयी है ..
    http://charchamanch.blogspot.com/

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