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Thursday, April 14, 2011

फिर न चूड़ियाँ खनकेगी, न पायल छमकेगी-nazm

मौसम की पहली बारिश है और तुम नहीं हो
हवाओं में अजीब साजिश है और तुम नहीं हो

अब तुम्हारे बिना यह मौसम यह हवा क्या है

कोई मुझको कहे तो सही मेरी खता क्या है

मैंने दिलो जान से तुझे चाहा क्या इसकी सजा है
तेरे रूठने की दिलबर और कौनसी वजह है

तू सामने आए, तो तुझे मना लूंगी मैं
इन सन्दल सी बाहों का हार पहना दूंगी मैं

पर तू तो किसी और जुल्फ के खम कैद लगता है
हो गया किसी और बीमार का वैद लगता है

यह फितनागरी अच्छी नहीं है सनम
गैरों से दिलबरी अच्छी नहीं है सनम

जब लौटेगा तो देखना पछताएगा
यह सरू का बूटा ये नैनों के कंवल नहीं पाएगा

मैं रूठी हूँ, सनम तू मना ले मुझको
मैं तो तेरी हूँ, तू भी अपना ले मुझको

मैं तेरी आशनां हूँ, तू भी हाथ बढ़ा दे मुझको
सबक इश्क का, आज पहला पढ़ा दे मुझको

फिर न ये मौसम न ये हवा होगी सनम
बहारों की न फिर फिजां होगी सनम

वस्ल तो जीने का इक बहाना है सनम
इश्क दिल का दिल से मिल जाना है सनम

इश्क में रूह या बदन कहाँ होता है
हम सी लैलाओं में हुस्न कहाँ होता है

हुस्न तो तेरी नजर में समाया है
यही तो उरूजे इश्क का सरमाया ह

यह वक्त निकला तो फिर न आएगा
देखना हाथ मल-मल के तू पछताएगा

ये हुस्न ये जवानी कुछ दिन है यारब
तेरी मेरी ये कहानी कुछ दिन है यारब

फिर तो वक्त अपना ढंग दिखलाएगा
मौसम का भी रंग बदलता जाएगा

फिर न चूड़ियाँ खनकेगी, न पायल छमकेगी
स्याह जुल्फों में दूर से चाँदी चमकेगी

यह तव्वसुम, देखना वीरान हो जाएगा
यह जोबन, दो दिन का मेहमान हो जाएगा

फिर तो बैठेंगे गठिये की दर्द लिए
सुलगते होठों की जगह निगाहें सर्द लिए

आ बैठ कुछ देर मौसम का मजा लें हम
कुछ गुल अपने हँसी ख्वाबों में सजा लें हम

फिर तो यह मेला खुद-ब-खुद बिछुड़ जाएगा
यह दस्ते हिना, देखना इबादत में जुड़ जाएगा

यह मतवाला काजल भी तो बह जाएगा
या तो मैं अकेली या तू अकेला रह जाएगा



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Thursday, April 7, 2011

वक्त तो बिक गया सहूलियतों की तलाश में-- kavita

आत्म विश्लेषण
भला
लगता है
आंगन में बैठना
धूप सेंकना

पर
इसके लिए वक्त कहां?

वक्त
तो बिक गया
सहूलियतों की तलाश में

और अधिक 
संचय की आस में

बीत गए
बचपन
जवानी,
जीवन के 
अन्तिम दिनों में

हमने
वक्त की कीमत जानी

पर तब तक तो
खत्म हो चुकी थी नीलामी

हम जैसों ने
खरीदे जमीन के टुकड़े

इकट~ठा कियान धन
देख सके न
जरा आंख उठा

विस्तृत नभ
लपकती तड़ित
घनघोर बरसते घन
रहे पीते 
धुएं से भरी हवा

कभी नहीं
देखा
पास में बसा 
हरित वन

गमलों में
सजाए पत्नी ने कैक्टस
उन पर भी डाली 
उचटती सी नजर

खा गया हमें 
तो यारो
दावानल सा बढ़ता 
अपना नगर

नगर का भी
क्या दोष?
इसे भी तो हमने गढ़ा

देखते रहे
औरों के हाथ
बताते रहे भविष्य
पर अपनी
हथेली को कभी नहीं पढ़ा।




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