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Tuesday, September 22, 2009

जब तक सूरज की पीठ न आ जाए,..---...कविता

चलो

चलो
इन जानी पहचानी
पगडंडियों को
छोड़ कर
बीहड़ में चलें,
और वहाँ पहुंच कर,
पीठ से पीठ
मिलाकर खड़े हो जाएं
और सफ
शुरू करें
अलग-अलग
एक दूसरे से विपरीत दिशा में
और भूल जाएं कि धरती
गेंद की तरह गोल है,
चलते रहें तब तक
जब तक पाँव थक कर
गति को नकार न दें,
चलते रहे तब तक
जब तक सूरज की पीठ न आ जाए,
तब तक
जब तक
अन्धेरा, बूढ़े बरगद की
कोपलों पर
शिशु से कोमल
पाँव रखता,
शाखाओं पर भागता,
तने से उतरकर
धरती पर बिखर न जाए,
चलते रहें
तब तक
जब तक
बारहसिंगों की आँखें
चमकने न लगे चारों ओर
और फिर
एक स्तब्धता
छा जाए
मौत सी।
चमकती आँखें दौड़ने लगे
तितर-बितर,
फिर एक
दहाड़ यमराज सी दहाड़,
जम जाए
रात की छाती पर।
मैं टटोलता सा
आगे बढूं
और छू लूँ तुम्हारी
गठियाई
उंगलियों को
चलो
जानी पहचानी
पगडंडियों को छोड़ कर
चल दे
बीहड़ में
आज हम



15.7.96 9 बजे रात



हर सप्ताह मेरी एक नई गज़ल व एक फ़ुटकर शे‘र हेतु आप यहां सादर आमंत्रित हैं
http://gazalkbahane.blogspot.com/
विश्वास रखें आप का समय व्यर्थ न जाएगा।

Friday, September 18, 2009

शक की फ़फ़ूंदो से



रिश्ते
दो तरह के होते हैं
एक जन्म के
साथ
समाज द्वारा
उपहार में मिले
चाचा ताऊ
मौसी ,बूआ सरीखे
जोचाहे-अन्चाहे
ढोने पड़ते हैं ताउम्र
इसके अलावा

कोई दूसरा विकल्प
नहीं होता
मेरे-तुम्हारे या
किसी के पास

दूसरे रिश्ते
घर कर लेते है
अनायास ही
मन की गुफ़ा में
इन्हे नाम देते हैं लोग
दोस्ती या प्यार
अस्ल में
केवल यही
रिश्ते हैं हकदार
संबंध कहलाने के
संबन्ध ?
जी
यही तो है
जो देते है
गरिमा
समान बन्धन की
इनकी उष्मा से
चलती है
जिन्दगी की
नाव मन्थर गति से
और झेल लेती है
जिन्दगी के समंदर
में उठे तूफ़ानो को
या मन में
उमड़े भूचालों को
बहुत कोमल
बहुत खूबसूरत होते हैं
ये संबन्ध
बचाये रखें इन्हे
शक की फ़फ़ूंदो से
जुबां के मिसाइलों से
अविश्वास की महामारी से











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Wednesday, September 9, 2009

मां एक याद-kavita shyam skha

मां
ने
बहुत सरल
बहुत प्यारी
बहुत भोली
मां ने
बचपन में
मुझे
एक गलत
आदत सिखा दी थी
कि सोने से पहले
एक बार
बीते दिन पर
नजर डालो और
सोचो कि तुमने
दिन भर
क्या किया
बुरा या भला
सार्थक
या
निरर्थक
मां तो चली गई
सुदूर
क्षितिज के पार
और बन गई
एक तारा नया
इधर
जब रात उतरती है
और नींद की
गोली खाकर
जब भी
मैं सोने लगता हूं
तो
अचानक
एक झटका सा लगता है
और
मैं सोचते बैठ जाता हूं
कि दिन भर मैंने
क्या किया?कि
आज के दिन
मैं कितनी बार मरा
कितनी बार जिया
फिर जिया
इसका हिसाब
बड़ा उलझन भरा है
मेरा वजूद जाने कितनी बार मरा है
यह दिन भी बेकार गया
मैंने देखे
मरीज बहुत
ठीक भी हुए कई
पर नहीं है
यह बात नई
इसी तरह तमाम जिन्दगी गई
जो भी था मन में
जिसे भी माना
मैंने सार्थक
तमाम उम्र भर
वह आज भी नहीं कर पाया मैं
तो कभी
अपनी मर्जी से जिया
ही
अपनी मर्जी से मर पाया मैं।