!!!

Wednesday, March 25, 2009

किशोरियों की तरह कूदते-फाँदते

क्या होगा कोई मनुष्य?

क्या होगा
कोई मनुष्य ऐसा
जिसने
न उठाया हो लुत्फ
बादलों की लुकमींचणी का

क्या होगा
कोई मनुष्य ऐसा
जिसने
न देखा हो उल्काओं को
किशोरियों की तरह कूदते-फाँदते

क्या होगा
कोई मनुष्य ऐसा
जिस के पाँव
न जले हों जेठ की धूप में

क्या होगा
कोई मनुष्य ऐसा
जो न नहाया हो
भादों की बरसात में

क्या होगा
कोई मनुष्य ऐसा
जिस की हड्डियाँ
न ठिठुरी हों पूष मास में

अगर होगा
कोई मनुष्य ऐसा
तो अवश्य ही
रहता होगा
वह किसी
साठ सत्तर मन्जिले कठघरे में
किसी महानगर
कहलाते चिडिय़ा घर में।

Saturday, March 21, 2009

दो गज़ल हर सप्ताह

मेरी दो गज़ल हर सप्ताह
http://gazalkbahane.blogspot.com/
एवम्‌
दो मुक्त छंद कविता हर सप्ताह
http://katha-kavita.blogspot.com/
पर देख सकते हैं
श्याम सखा‘श्याम

हक ओ हकूक की लड़ाई

मैं
जब भी
हक ओ हकूक
की बात करता हूं
मैं
जब भी
इन्सां के वजूद की
बात करता हूं
तो
लोग
लाठियां लेकर
मारने दौड़े चले आते हैं
चिल्लाते हैं
कि
इस पर
मसीहा उतर आया है
फिर
किसी इन्सान पर
बुद्ध, ईसा या माक्र्स
बनने का
भूत समाया है
मानो
ये सब
लक्कड़बग्घे थे
जो
बच्चों को
उठा ले जाते थे
पहले जब ऐसी बातों
पर
सर फुटौवल होता था
तो दोस्त
समझाते थे
कि
पगले
ऐसी बातें मत किया
और को जीने दे
और खुद भी जिया कर
पर मैं
उनकी बातें पचा नहीं पाता था
अब जब भी
हको हकूक
या इन्सा के वजूद की
बात पर
पिट-पिटा कर
घर लौटता हूं
तो
पत्नी आंचल से
मेरा
लहू पौंछती है
घी
हल्दी से
शरीर की चोट सेकती है
कातर
निरीह
आंखों से मेरे दिल में
झांकती है,
उसकी इन
नजरों से
मैं कमजोर पड़ जाता हूं
मेरी
रूह आंन्धी में
दीए की मानिन्द कांपती है
मैं सोचता हूं
कि अब तक
जो ख्वाब बुने थे
इन्सानियत के
सारे के सारे तोड़ दूं
पर
तभी सामने आ खड़ी होती है
बसु
माने
छोटी सी
प्यारी सी
बेटी
मेरी बेटी बसुदा
साफ
पाक आंखों से झांकती
मानो मेरी
कमजोरी को भांपती
जैसे
पूछती हो
पापा फिर कौन लड़ेगा?
उन लोगों ने
जिन्होंने खरीद लिया है
दाखिले
इंजिनयरिंग
और मेडिकल कालेजों के
जिन्होंने
मिलकर बांट ली है
सारी
नौकरियां
जाति धर्म
और भाई भतीजावाद
का नारा लगाकर
विश्वमुद्राकोष और पूंजीवादियों के हाथों
छीन रहे हैं
दस्तकारों के जीने का हक
मैं लड़खड़ाता सा
पत्नी के
कान्धे का सहारा लेकर
खड़ा होता हूं
और
अपनी कमजोरी की लाश
पर
खड़ा होकर चिल्लाता हूं
इंकलाब
जिन्दाबाद।
और
एक बार फिर
तैयार हो जाता हूं
ह्को-हकूक की
लड़ाई लड़ने के लिये

Wednesday, March 18, 2009

मैं हूँ उसकी हीर

1
मन् लोभी मन लालची,मन चंचल मन चोर
मन के हाथ सभी बिके,मन पर किस का जोर

तेरे मन ने जब कही,मेरे मन् की बात
हरे-हरे सब हो गये,साजन पीले पात


जिसका मन अधीर हुआ,सुनकर मेरी पीर
वो है मेरा राँझना, मैं हूँ उसकी हीर


तेरे मन पहुंची नहीं,मेरे मन की बात
नाहक हमने थे लिये,साजन फ़ेरे सात्


वो बैरी पूछै नहीं ,अब तो मेरी जात
जिसके कारण थे हुए,सारे ही उत्पात


सुनले साजन आज तू,एक पते की बात
प्यार कभी देखे नहीं.दीन-धरम या जात


मन की मन ने जब सुनी. सुन साजन झनकार
छनक् उठी पायल तभी,खनके कंगन हजार

मन फकीर है दोस्तो,मन ही साहूकार
मुझ में रह उनका हुआ,मन् ऐसा फनकार


मन की मन से जब हुई,साजन थी तकरार
जीत सका तू भी नहीं,गई तभी मैं हार
१०
मन की करनी देखकर.बौरा गया दिमाग
संबंधों में लगी तभी,बैरन कैसी आग ?
११
मनवा जब समझा नहीं,प्रीत प्रेम का राग
संबंधों घोड़े चढ़ा था,तभी बैरी दिमाग
१२
मन की हारे हार है,सभी रहे समझाय
समझा,समझा सब थके,मनवा समझे नाय

१३
मन की लागी आग तो ,वो ही सके बुझाय
जिसके मन् में,दोस्तो , प्रीत अगन लग जाय
१४
प्रीतम के द्वारे खड़ा,मनवा हुआ अधीर
इतनी देर लगा रहे,क्या सौतन है सीर
१५
मन औरत ,मन मरद भी,मन बालक नादान
नाहक मन के व्याकरण,ढूंढ़े सकल जहान
१६
मन तुलसी मीरा भया,मनवा हुआ कबीर
द्रोपदी के श्याम-सखा,पूरो म्हारो चीर
१७
अंगरलियां जब मन करे,महक उठे तब गात
सहवास तो है दोस्तो,बस तन की सौगात
१८
मन की मन से जब हुई,थी यारो तकरार
टूट गये रिश्ते सभी,सब् बैठे लाचार
१९
मन की राह अनेक हैं, मन के नगर हजार
मन का चालक एक है,प्यार,प्यार बस प्यार
२०
मन के भीतर बैठकर, मन की सुन नादान
मन के भीतर ही बसें,गीता और कुरान

मैं हूँ उसकी हीर

1
मन् लोभी मन लालची,मन चंचल मन चोर
मन के हाथ सभी बिके,मन पर किस का जोर

तेरे मन ने जब कही,मेरे मन् की बात
हरे-हरे सब हो गये,साजन पीले पात


जिसका मन अधीर हुआ,सुनकर मेरी पीर
वो है मेरा राँझना, मैं हूँ उसकी हीर


तेरे मन पहुंची नहीं,मेरे मन की बात
नाहक हमने थे लिये,साजन फ़ेरे सात्


वो बैरी पूछै नहीं ,अब तो मेरी जात
जिसके कारण थे हुए,सारे ही उत्पात


सुनले साजन आज तू,एक पते की बात
प्यार कभी देखे नहीं.दीन-धरम या जात


मन की मन ने जब सुनी. सुन साजन झनकार
छनक् उठी पायल तभी,खनके कंगन हजार

मन फकीर है दोस्तो,मन ही साहूकार
मुझ में रह उनका हुआ,मन् ऐसा फनकार


मन की मन से जब हुई,साजन थी तकरार
जीत सका तू भी नहीं,गई तभी मैं हार
१०
मन की करनी देखकर.बौरा गया दिमाग
संबंधों में लगी तभी,बैरन कैसी आग ?
११
मनवा जब समझा नहीं,प्रीत प्रेम का राग
संबंधों घोड़े चढ़ा था,तभी बैरी दिमाग
१२
मन की हारे हार है,सभी रहे समझाय
समझा,समझा सब थके,मनवा समझे नाय

१३
मन की लागी आग तो ,वो ही सके बुझाय
जिसके मन् में,दोस्तो , प्रीत अगन लग जाय
१४
प्रीतम के द्वारे खड़ा,मनवा हुआ अधीर
इतनी देर लगा रहे,क्या सौतन है सीर
१५
मन औरत ,मन मरद भी,मन बालक नादान
नाहक मन के व्याकरण,ढूंढ़े सकल जहान
१६
मन तुलसी मीरा भया,मनवा हुआ कबीर
द्रोपदी के श्याम-सखा,पूरो म्हारो चीर
१७
अंगरलियां जब मन करे,महक उठे तब गात
सहवास तो है दोस्तो,बस तन की सौगात
१८
मन की मन से जब हुई,थी यारो तकरार
टूट गये रिश्ते सभी,सब् बैठे लाचार
१९
मन की राह अनेक हैं, मन के नगर हजार
मन का चालक एक है,प्यार,प्यार बस प्यार
२०
मन के भीतर बैठकर, मन की सुन नादान
मन के भीतर ही बसें,गीता और कुरान

क्या फर्क पड़ता है मेरे मरने से ?

क्या
फर्क पड़ता है
मेरे
जीने या मरने से ?
क्योंकि
मैं ना तो
जीते जी धरती पर बोझ हूँ
ना ही
मेरे मरने से दुनिया
खाली होने वाली है
क्या फर्क पड़ता है
मेरे जीने या मरने से
हाँ कुछ अन्तर
अवश्य आएगा
उस जगह, घर या
आसपास में
जहां मैंने इस
नाकुछ जीवन
के पचास साल
गुजार दिए हैं

मेरे बिस्तर का
वह हिस्सा खाली हो जाएगा
जहाँ मैं सोता हूँ
और मेरी पत्नी
कहलाने वाली औरत
को अकेले सोना पड़ेगा
क्येांकि वह
एक घरेलू भारतीय
महिला है
तथा जवान होते
बच्चों की माँ है,
कोई और
विकल्प भी तो नहीं हैं
उसके पास।

मेरे बेटे के
पास आ जाएगा अधिकार
मेरी जमा पूँजी को
अपने हिसाब से खर्च करने
का
इसलिए उसके आँसू
उसका ग
पत्नी के गम की तुलना में
क्षणिक होगा

मेरे दफ्तर की कुर्सी भी
एक दिन
के लिए
खाली हो जाएगी
फिर काबिज
हो जाएगा उस पर
बाबू राम भरोसे
बहुत दिन
से प्रतीक्षा में है
बेचारा
मेरी पुरानी साइकिल
को ले जाएगा कबाड़ी
क्योंकि
वह नहीं रह जाएगी
पहले भी कब थी ?
इस घर के लायक।

अलबत्ता
‘बुश’ मेरा कुत्ता
शायद ‘मिस’ करेगा
सुबह सुबह
मेरे साथ टहलना।
क्योंकि कोई और उसे
बाहर नहीं ले
जाता अल सुबह ;
पर शायद
उसके बरामदे का फर्श
खराब करने की आदत
से तंग आकर
पत्नी संभाल लेगी ;
यह काम भी,
और बुश भी
भूल जाएगा
मेरा दुलारना डाँटना दोनों

क्या फर्क
पड़ता है
मेरे जीने से
या मरने से ?
जीते जी मैं
बोझ नहीं हूँ

धरती पर
और मेरे मरने से
दुनिया नहीं है
खाली होने वाली

Sunday, March 15, 2009

न ही अपनी मर्जी से मर पाया मैं।

मां एक याद
मां
ने
बहुत सरल
बहुत प्यारी
बहुत भोली
मां ने
बचपन में
मुझे
एक गलत
आदत सिखा दी थी
कि सोने से पहले
एक बार
बीते दिन पर
नजर डालो और
सोचो कि तुमने
दिन भर
क्या किया
बुरा या भला
सार्थक
या
निरर्थक
मां तो चली गई
सुदूर
क्षितिज के पार
और बन गई
एक तारा नया
इधर
जब रात उतरती है
और नींद की
गोली खाकर
जब भी
मैं सोने लगता हूं
तो
अचानक
एक झटका सा लगता है
और
मैं सोचते बैठ जाता हूं
कि दिन भर मैंने
क्या किया?कि
आज के दिन
मैं कितनी बार मरा
कितनी बार जिया
फिर जिया
इसका हिसाब
बड़ा उलझन भरा है
मेरा वजूद जाने कितनी बार मरा है
यह दिन भी बेकार गया
मैंने देखे
मरीज बहुत
ठीक भी हुए कई
पर नहीं है
यह बात नई
इसी तरह तमाम जिन्दगी गई
जो भी था मन में
जिसे भी माना
मैंने सार्थक
तमाम उम्र भर
वह आज भी नहीं कर पाया मैं
न तो कभी
अपनी मर्जी से जिया
न ही
अपनी मर्जी से मर पाया मैं।

Monday, March 9, 2009

मेरे गम बेचारे कहां जायेंगे



डॉक्टर ने
सरगोशी के लहजे में कहा
सुनो !
एक दिल में
चार वाल्व होते हैं
और
तुम्हारे दो वाल्व खराब हैं
दो वाल्व
माने आधा -दिल
अब तुम्ही कहो
इस आधे दिल में
किसे रक्खूं
तुम्हें या अपने गमों को
तुम्हें तो
स्वस्थ शरीर व जवां दिल
मिल जाय़ेंगे
मेरे गम
बेचारे कहां जायेंगे

वक़्त तो बिक गया

आत्म-विश्लेषण


भला
लगता है
आंगन में बैठना
धूप सेंकना

पर
इसके लिये
वक़्त कहां ?
वक़्त तो बिक गया
सहूलियतों की तलाश में
और अधिक-और अधिक
संचय की आस में

बीत गये
बचपन जवानी
जीवन के अन्तिम दिनों में
हमने
वक़्त की कीमत जानी
तब तक तो
खत्म हो चुकी थी
नीलामी

हम जैसों ने
खरीदे
जमीन के टुकड़े
इक्ट्ठा किया धन
देख सके न
जरा आँख उठा
विस्तरित नभ
लपकती तड़ित
घनघोर गरजते घन
रहे पीते
धुएं से भरी हवा
कभी
देखा नहीं
बाजू मे बसा
हरित वन

पत्नी ने लगाए
गमलों में कैक्टस
उन पर भी
डाली उचटती सी नज़र

खा गया
हमें तो यारो
दावानल सा बढ़ता
अपना नगर

नगर का
भी, क्या दोष
उसे भी तो हमने गढ़ा
देखते रहे
औरों के हाथ
बताते रहे भविष्य
पर
अपनी
हथेली को
कभी नहीं पढ़ा

Saturday, March 7, 2009

कब आयेगी ?

इन्तजार


प्रतीक्षा
रोज दोपहर तक
नयन बैठे रहते हैं
बाहर जंगले वाले दरवाजे पर
डाकिये की प्रतीक्षा में
उसके साइकल की घंटी पर
मन जा बैठता है
लैटर-बाक्स के
भीतर फिर सड़क पर
बैठे ज्योतिषी के तोते सा
ढ़ूंढ़ता है चिट्ठियों के ढेर में तुम्हारी
चिट्ठी जिसकी आस में अटकी है
सांस जो आई नहीं अब तक
कब आयेगी ?

Thursday, March 5, 2009

गद्दी की पसंद- कूल्हें नरम और जेब गर्म


सिरफिरे और सलीब

सिरफिरों ने जब भी चुना है,
सलीब को चुना है,
किसी सिरफिरे ने हथिया ली गद्दी,
आपने सुना, गलत सुना है।

गद्दी की पहचान,
उसे कहाँ,
जिसका सिर फिरा हो,
गद्दी को वो क्या जाने,
जो रोटी-रोजी के मसले से जुड़ा हो।
गद्दी भी,
पसंद करती है उन्हें,
जिनके कूल्हे नरम और जेब गर्म हो,
गद्दी को कब भाए हैं वो,
जो केवल हाड़ हों, चर्म हों।
गद्दी को,
कब पसंद आई हैं
झुकी हुई बोझल निगाहें,
गद्दी को चाहिएं,
वो नजरें जो बेशर्म हों।

यह आज की बात नहीं,
ये तो सदियों का सिलसिला है,
सोने की छड़ से क्या
गरीब का चूल्हा जला है।

ये सवाल सतही नहीं,
मेरे हुजूर दिल का है,
खनखनाते बलूरी ग्लासों का नहीं,
बनिए के बेहिसाब बढ़ते बिल का है।

हमेशा घाटे का पाया है,
गरीब का बजट,
मैंने तुमने चाहे जिसने गुना है,
सिरफिरों ने जब भी चुना है,
सलीब को चुना है।

Wednesday, March 4, 2009

वह हो सकती है तुम्हारी पत्नी भी ।

सीखना
सहन
करना सीखना है
तो सीखो धरती से
या फिर
सीखो औरत से
जरूरी नहीं
वह
तुम्हारी माँ
बहन
या बेटी हो,
वह
हो सकती है
तुम्हारी पत्नी भी ।

माँ का दु:खी होना वाजिब है

माँ का दु:खी होना वाजिब है
क्योंकि
उसने बहुत दिन से
अपने बेटे को
खिलखिलाते नहीं देखा

माँ का दु:खी होना वाजिब है
क्योंकि
वह देखती है
कि जब सब सो जाते हैं
तो जागता रहता है
बस उसका अपना अधेड़ होता बेटा।
और जाने क्या-क्या लिखता रहता है

उसका लिखा माँ पढ़ती है
अखबारों में, पत्रिकाओं में
बेटे के दु:
बेटे की लिखी
कविताओं में, नज्मों में,
कहानियों में
हालाँकि
उसे वे सब
बहुत समझ नहीं आती
पर उसके होते हुए
बेटा दु: कागजों पर क्यों लिखता है ?
क्यों नहीं बेटा पहले की तरह
दु:खी होकर
उसके आँचल का
सहारा लेता
सोचती है मां
और दुखी हो जाती है
माँ का दु:खी होना सचमुच वाजिब है

देह तो मात्र जवान गठीली, उत्तेजक माशपेशियाँ तथा गोलाईयाँ हैं

देह तो मात्र जवान गठीली, उत्तेजक माशपेशियाँ तथा गोलाईयाँ हैं

पहले हम
सरदारों, नवाबों,
राजाओं के गुलाम थे
फिर संतरियों
तथा मंत्रियों के
गुलाम बने

अब हम
पदार्थोन्मुखी हैं
यानी
बाजार के
विज्ञापन के गुलाम है
गुलाम हैं
साबुन, तेल, टी.वी.
स्टीरियों, कार,
कम्प्यूटर बेचती
नंगी मादा देह के

इस मादा देह का
अवगुठन नहीं,
मात्र नाम बदलते हैं।
देह तो मात्र
जवान गठीली,
उत्तेजक माशपेशियाँ तथा गोलाईयाँ हैं
हाँ इनके
नाम बदलते रहते हैं
जैसे
ऐश्वर्य, सुष्मिता, लारा दत्ता,
करिश्मा या करीना कपूर
अक्षय, अजेय यौवन के ख्वाब बेचते
पच्चीस साल के बुड्ढे, या साठ साल के जवान के
या फिर अन्दर का मामला है
का गोविंदा
या के.बी.सी. को लॉक करने वाला
बुढ़ाता निरीह अमिताभ
जिसपर तरस खाकर
हम खरीदते हैं हिमानी तेल
हालाँकि मालिश के लिए
हमारे पास वक्त है
ही सिर
कबन्धों के पास कभी सिर हुआ है?
जो हमारे पास होता।
उसके धमकाने पर
हम पहुँच जाते है अस्पताल
अपने शिशुओं को
पोलियों ड्राप्स दिलवाने
बस इसी तरह
गुलामी में कटे हैं
हमारे पूर्व जन्म
और
कट रही है यह उम्र भी
जैसे
तैसे
जैसे-तैसे कट रही जिन्दगी।